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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

फ्रिज में होता है वायरस व बैक्टीरिया

आमतौर पर फ्रिज में रखे सामान को सुरक्षित मान लेते हैं लोग। लेकिन ग्लोबल हाईजीन काउंसिल के ताजा अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि फ्रिज में रखे सामान 70 फीसदी गंदे होते हैं। जबकि 95 फीसदी बाथरूम में बैक्टीरिया और वायरस का साम्राज्य रहता है। इन बैक्टीरिया व वायरस के कारण आम भारतीय पेट की खराबी, सांस की तकलीफ, चर्म रोग, फुड प्वाइजनिंग और एलर्जी का शिकार हो रहे हैं।
काउंसिल के भारत प्रतिनिधि डॉ.नरेंद्र सैनी ने संवाददाताओं से कहा कि हाथ की सफाई ठीक से न होने के कारण बैक्टीरिया व वायरस तेजी से फैलता है। जिन सामान को ऐसे हाथों से छुआ जाता है उसमें बैक्टीरिया व वायरस चला जाता है। कंप्यूटर की 22 फीसदी की बोर्ड में वायरस का साम्राज्य रहता है। जबकि टेलिफोन पर 45 फीसदी वायरस पाया गया है। किचन में काम करने वाली महिलाएं एक ही तौलिए का उपयोग कई कामों में करती है और प्रतिदिन साफ नहीं करती है। जिसके कारण 75 फीसदी वायरस जमा रहता है। हाथ में जमा वायरस छह से 48 घंटे तक जिंदा रहता है।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

दोपहर में महिलाओं से न लें पंगा नहीं तो...

पुरुषों के लिए एक बहुत ही जरूरी सलाह। वे दोपहर के वक्त महिलाओं के साथ किसी भी कीमत पर उलझने से बचें। नहीं तो इस समय महिलाओं के साथ बहसबाजी में उन्हें मुंह की खानी पड़ सकती है।

जी हां, लोगों के मिजाज पर किए गए एक सर्वे के नतीजे पर यकीन करें तो पुरुषों को इस सलाह पर जरूर अमल करना चाहिए। वरना, उन्हें महिलाओं से मात मिल सकती है। अध्ययन के नतीजों में यह भी कहा गया है कि यदि महिलाएं पुरुषों से कुछ कहना चाहती हैं तो उन्हें शाम के छह बजे तक इंतजार करना चाहिए, क्योंकि यही वह समय है जब पुरु ष अपने करीबी लोगों की मांगों को पूरी करते हैं।
ब्रिटेन में हुए इस अध्ययन में 1,000 पुरु षों और महिलाओं को शामिल किया गया था। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जब किसी महिला को तनख्वाह में इजाफे या प्रोन्नति की बात अपने बॉस से कहनी हो तो वह यह काम सुबह में न कर दोपहर एक बजे करे। इस वक्त उनकी मांगें पूरी होने की ज्यादा संभावना रहती है।
नतीजों के मुताबिक, दोपहर एक बजे के बाद का समय ऐसा होता है जब प्रबंधक अपने कर्मचारियों की मांग के प्रति बहुत उदार होता है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘महिलाएं यह जानकर काफी खुश होंगी कि मूड में होने वाले उतार-चढ़ाव से सिर्फ वहीं पीड़ित नहीं हैं, बल्कि ऐसा पुरुषों में भी देखा जाता है।’

पत्नी से प्रताड़ित डॉक्टर फांसी पर झूला

कानपुर। उन्नाव के सरकारी अस्पताल में तैनात एक डॉक्टर ने अपनी पत्नी से प्रताड़ित होकर फांसी लगा आत्म हत्या कर ली। बहन ने जब उसके कमरे में देखा तो वह पंखे से झूल रहा था। चीख सुनकर परिवार के सभी लोग वहां पुहंच गए।
डॉक्टर ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि वह अपनी पत्नी के व्यवहार से मानसिक रुप से परेशान होकर ऐसा कदम उठा रहा है। सूचना पाकर पुलिस मौके पर पहुंची और परिजनों से पूंछतांछ करने के बाद शव पोस्टमार्टम को भेज दिया है। घटना नजीराबाद थाना क्षेत्र की है। जानकारी के मुताबिक हर्ष नगर के मकान नंबर 42 108 में रहने वाले शंकर सिंह का पुत्र सिद्धार्थ (36) सरकारी डॉक्टर था और उन्नाव जिले के सिंकदरापुर सौरासी गांव के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र में मुख्य चिकित्सक के रुप में कार्यरत था।
उसकी पत्नी रेनू नगर के एसएनसेन इंटर कालेज में टीचर है और काफी समय से अपने मायके किदवई नगर में रह रही है। पिता शंकर सिंह का आरोप है कि उनकी बहू रेनू के किसी व्यक्ति से अवैध संबंध है। जिसका बेटा सिद्धार्थ हमेशा विरोध करता था। इसी विरोध के कारण विगत वर्ष अक्टूबर माह में रेनू ने सिद्धार्थ का रोड एक्सीडेंट भी करा दिया था। जिससे सिद्धार्थ के दोनों पैरों में फैक्चर होने के कारण सरिया डाली गयी थी।शंकर सिंह का यह भी आरोप है कि रेनू व साथ पढ़ाने वाली उसकी सहेली किरन दोनों उनके बेटे को फोन पर अक्सर अपाहिज कह कर धमकया करती थीं। जिस कारण सिद्धार्थ मानसिक रुप से बहुत परेशान रहता था। आज सुबह जब सिद्धार्थ काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो बेटी ने दरवाजा खोलकर अंदर देखा और फांसी से झूलता भाई का शव देखकर वह चीख पड़ी। सिद्धार्थ अपने तीन भाइयों में सबसे छोटा था। उसकी चार बहने भी है। सिद्धार्थ की मौत के बाद पूरे परिवार में कोहराम मच गया। वहीं पति की मौत की खबर मिलने के बाद भी रेनू अपने मायके से नहीं आयी।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

क्या है हाइवे हिंदुस्तान?

बीबीसी हिंदी की टीम 21 मार्च से भारत के विभिन्न हिस्सों में गोल्डन क्वाड्रिलेटरल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज पर यात्रा कर रही है. 21 दिनों की इस यात्रा का उद्देश्य यह जानने की कोशिश करना है कि इन तेज़ रफ़्तार सड़कों से क्या कुछ बदल रहा है.

स्वर्णिम चतुर्भुज के प्रभावों का आकलन करने के लिए बीबीसी हिंदी के संवाददाताओं की टीम देश के दो हिस्सों में यात्रा करेगी. एक हिस्सा उत्तरी भारत से पूर्वी भारत का होगा और दूसरा दक्षिण भारत से पश्चिमी भारत का.

बीबीसी की टीम प्रतिदिन औसतन 300 किलोमीटर की यात्रा करेगी.
सवाल

भारत के भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ ने जून 2010 से प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क निर्माण का लक्ष्य रखा है. यानी एक साल में सात हज़ार किलोमीटर सड़कें.

इस योजना का मुख्य लक्ष्य राज्य की राजधानियों को गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज से जोड़ना है. स्वर्णिम चतुर्भुज देश को चार महानगरों, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई को तेज़ रफ़्तार यातायात के लिए चलने वाली सड़कों से जोड़ने वाली परियोजना है जो अब लगभग पूरी हो चुकी है.

भारत में सड़कों को जोड़ने की यह परियोजना बीसवीं सदी के 20 और 50 के दशक में अमरीका में सड़क निर्माण परियोजनाओं की याद दिलाती है. अमरीका में सड़कों ने न केवल विकास को बढ़ावा दिया बल्कि इससे व्यापार और कारोबार को बहुत बढ़ावा मिला.

यह जानने की सहज इच्छा होती है कि भारत में सड़कों के निर्माण से क्या कुछ बदल रहा है? सड़कों के किनारे की ज़मीनें महंगी हो रही हैं, नए निर्माण हो रहे हैं, नए शहर विकसित हो रहे हैं, ढाबों का चलन बढ़ा है, लेकिन इसने किसानों को खेती से दूर भी किया है, स़डकों के रास्ते एचआईवी-एड्स जैसी घातक बीमारी घरों तक पहुँच रही हैं.

कई और सवाल भी हैं. मसलन क्या इसकी वजह से शहरीकरण बढ़ रहा है? क्या इससे रोज़गार के अवसर बढ़े हैं? और क्या यह व्यापार-कोरोबार की बढ़ोत्तरी में कोई भूमिका निभा रहा है?
यात्रा
राजपथ, दिल्ली

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने पिछले दस सालों में सड़कों पर बहुत काम किया है

इन सब सवालों के जवाब तलाश करने के लिए बीबीसी संवाददाताओं की एक टीम स्वर्णिम चतुर्भुज पर तीन हफ़्ते यात्रा कर रही है.

वे यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसने लोगों के जीवन पर कैसा असर डाला है और इससे समाज किस तरह बदल रहा है? क्या इससे सचमुच एक नए भारत का निर्माण हो रहा है, जैसा कि इस परियोजना को लेकर सरकारों का दावा रहा है?

संवाददाताओं की यह टीम अपने अनुभवों को विशेष रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए श्रोताओं से साझा करेगी, तस्वीरों और वीडियो के ज़रिए बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के पाठकों से रूबरू होगी. यह टीम अपनी यात्रा के दौरान बीबीसी के श्रोताओं और पाठकों से उनके अनुभव भी साझा करेगी.
यात्रा का मार्ग

पहले चरण की यात्रा 21 मार्च को वाराणसी से शुरु होगी और 30 मार्च को कोलकाता में ख़त्म होगी. उत्तर प्रदेश से शुरु होकर यह यात्रा बिहार और झारखंड से होकर पश्चिम बंगाल में ख़त्म होगी.

चकाचौंध के पीछे का अंधेरा

अध्यादेश लागू, आत्महत्याएँ जारी

ग्रामीण गरीबों को छोटे ऋण देने वाली संस्थाओं या माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों की अनियमितताओं से निपटने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार का अध्यादेश लागू हो गया है.
इसके अंतर्गत ऋण की वसूली के लिए किसी को डराना-धमकाना एक अपराध बन गया है. इसके लिए तीन वर्ष क़ैद की सज़ा हो सकती है और एक लाख रूपए जुर्माना हो सकता है.

इस अध्यादेश पर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने शुक्रवार को हस्ताक्षर किए और राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री वी वसंता कुमार ने कहा कि इस पर तुरंत अमल शुरू हो जाएगा.
इस बीच राज्य में माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से ऋण लेकर परेशानियाँ झेलने वाले लोगों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है.
गुरुवार और शुक्रवार दो और व्यक्तियों ने डराने-धमकाने से तंग आकर अपनी जान ले ली.

आत्महत्याएँ जारी

एक घटना शुक्रवार को वारंगल ज़िले के वेंकटादरी गाँव में हुई जहाँ रमेश नाम के एक खेत मज़दूर ने आत्महत्या कर ली. उस के परिवार वालों का आरोप है कि उसे एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के लोग ऋण की वापसी के लिए परेशान कर रहे थे.
ऐसी ही एक घटना गुरुवार कड़प्पा ज़िले में हुई जहाँ वेल्लम्वारिपल्ली गाँव के एक किसान रमन्ना रेड्डी ने कीटनाशक दवा पीकर आत्महत्या कर ली. उसने दो अलग अलग कंपनियों से तीस हज़ार रुपये का ऋण लिया था लेकिन उसे वापस अदा नहीं कर पा रहा था.

अनंतपुर ज़िले में भी एक कंपनी के कर्मचारियों ने उन लोगों के घरों में तोड़फोड़ की जो ऋण वापस नहीं कर पा रहे थे.
ऐसी ही एक कार्रवाई के जवाब में खम्मम जिले में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के कार्यालय पर धावा बोल दिया और वहां तोड़फोड़ की.

नए नियम


ग्रामीण विकास मंत्री वसंता कुमार ने कहा है कि इस अध्यादेश के पारित होने के साथ ही अब केवल उन्हीं माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को राज्य में काम करने की अनुमति होगी जो अपना पंजीकरण करवाएँगीं.
इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है
वी वसंता कुमार, ग्रामीण विकास मंत्री
इसके लिए उन्हें तीस दिन का समय दिया गया है.
अध्यादेश के अंतर्गत इन कंपनियों को अपने कार्यालय में एक बोर्ड पर यह साफ़ लिखना होगा की वे किस ब्याज़ दर पर ऋण दे रहे हैं और ऋण लेने वाले पर कितना बोझ पड़ने वाला है.

इन कंपनियों पर आरोप है कि वो ऋण लेने वाले ग्रामीण ग़रीबों और महिलाओं को स्पष्ट रूप से नहीं बताते कि कुल मिलाकर उन्हें कितना प्रतिशत ब्याज़ देना होगा.
आरोप है कि कई कंपनियाँ तो 30 से 50 प्रतिशत तक ब्याज़ लेती हैं.

सरकार ने अपनी ओर से इन संस्थानों के लिए ब्याज़ दरों की कोई सीमा तय नहीं की है. मंत्री वसंता कुमार का कहना था कि यह राज्य सरकार के दायरे से बाहर है.
वसंता कुमार ने बताया, "इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है."
इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कहा जाएगा कि वो महिलाओं के समूहों को ऋण दें ताकि वो माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों का ऋण वापस लौटा सकें.
इन बैंकों की ब्याज़ दर माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कम होंगीं.
अगर बैंक यह सुझाव स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उन्हें महिलाओं के समूहों को 9600 करोड़ रुपए के ऋण देने होंगे क्योंकि माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को इन ग्रामीणों से इतना ही ऋण वसूल करना है.
आंध्र प्रदेश में एक करोड़ से भी ज़्यादा महिलाएँ स्व-सहायता समूहों की सदस्य हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद पी मधु का कहना है कि इन समूहों को बैंकों से कर्ज़ न मिलने की वजह से ही वे माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कर्ज़ लेने को मज़बूर हुए हैं.
उनका कहना है कि इन समूहों को 12 से 15 हज़ार करोड़ रुपए मिलने चाहिए जबकि सरकार सिर्फ़ 11 सौ करोड़ रुपए उपलब्ध करवा रही है

खत लिख दे सावरियां के नाम

खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू वो जान जायेंगे पहचान जायेंगे कोई तीन दशक पूर्व बंबईया फिल्म का यह गीत उन लोगों को बहुत भाता था जो दूसराेंं के लिये खत लिखने का काम करते थे और इसके बदले उन्हे चन्द पैसे मिल जाया करते थे1लेकिन अब न तो खत लिखने व पढने का काम मिलता है और न ही यह गाना बजता है1

पुराने दिनों की याद करते हुए एक खत लिखने वाले बुजुर्ग 70 वर्षीय रामाश्रय शर्मा ने बताया कि वे कक्षा चौथी में जब पढते थे तो पोस्टकार्ड पढने और फिर जवाबी पोस्टकार्ड लिखने के एवज में उन्हे एक आना मिला करता था 1 महीने में 10 से 12 आने की कमाई पोस्टकार्ड लिखने और पढने से हो जाया करती थी 1 बचपन में जेब खर्च के लिये यह रकम काफी थी1


आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त श्री शर्मा ने बताया कि नौकरी न मिलने तक वे खत पढने और लिखने का काम करते रहे 1इससे जहां गांव में उनकी अच्छी खासी पूछपरख होती थी और कमाई भी हो जाया करती थी ् लेकिन जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार प्रचार होता गया लोगों ने खुद ही लिखना पढना शुरू कर दिया1 वर्ष 1968 तक वे इस काम में लगे रहे और उनकी देखा देखी गांव के और भी पढे लिखे लडकों ने खत लिखने और पढने का काम शुरू कर दिया था 1यहां तक कि वे लोग आसपास के गांवों में भी जाकर लोेगों की चिट्ठियां पढकर सुनाने का काम कर दिया करते थे 1

श्री शर्मा ने बताया कि कुछ डाक बाबू अर्थात डाकिया भी खत पढने और लिखने का काम किया करते थे 1सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि खत पढने और लिखने वाला व्यक्ति खत की बात सार्वजनिक नहीं करता था और इस तरह वह उस व्यक्ति का विश्वास पात्र हो जाता था जिसके लिये वह खत लिखने का काम करता था1 अब न तो लोग पोस्टकार्डों का इस्तेमाल करते हैं और न ही आज के दौर में लोग किसी से अपनी चिट्ठी पढवाते हैं1 शायद इसलिए अब खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू जैसा गाना भी नहीं बजता है1

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

चार बहनें एक जैसी

ब्रिटेन की ये एक जैसी चार बहनें अपनी टीचर्स के लिए सिरदर्द बन गई हैं। बैडफोर्ड शायर के बिगलवेड के रहने वाले जोंस और जूली चाल्र्स एक साथ जन्मी इन चार बहनों के माता-पिता हैं। सितंबर 2005 में जन्मी इन चार जुड़वां बहनों की शक्ल-सूरत बिलकुल एक जैसी है। अब ये स्कूल जाने लगी हैं और इनकी टीचर्स के लिए चारों के बीच अंतर करना टेढ़ी-खीर साबित हो रहा है।
पांच साल की हो चुकी एली, जिऑर्जिना, जेसिका और हॉली ब्रिटेन में एकमात्र इस तरह की जीवित मिसाल हैं। दुनिया में क्वाड्रीप्लेट्स पैदा होने वाले बच्चों का यह 27वां इत्तेफाक है।
इन बच्चों की 42 वर्षीय मां जूली बताती हैं कि इन बच्चों की बचने की उम्मीद कम थी। डॉक्टर उन्हें बाकी बच्चों का बचाने के लिए एक का गर्भपात करने की सलाह दे रहे थे। फिर भी पति-पत्नी ने हिम्मत नहीं हारी और इसका नतीजा भी उनके पक्ष में गया।
इसी सप्ताह चारों ने स्कूल जाना शुरू किया है। चारों की पहचान करने के लिए टीचर्स ने उनके नाम का पहला अक्षर उनकी कॉलर पर लिख दिया है। चारों एक साथ यूनिफॉर्म पहनकर जाती हैं तो उन्हें पहचानना और मुश्किल हो जाता है। उन्हें देखने के लिए लोग खासतौर पर वहां आते हैं। जूली कहती हैं कि इनके जन्म के बाद से हमारी जिंदगी बदल गई है। इनकी परवरिश ही हमारे लिए सबकुछ है।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

ट्रैफ़िक नियम तोड़ने पर फ़िल्म देखने की सज़ा

अगर ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने पर आपको जुर्माना भरने के बजाय दो घंटे फ़िल्म देखने की सज़ा मिले तो कैसा होगा? जिन्होंने अब तक ये सज़ा भुगती है, उन्होंने कम से कम ट्रैफ़िक के नियम तोड़ कर भविष्य  में ऐसी फ़िल्म देखने से तो तौबा कर ली है.
असल में ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने वालों से परेशान छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर  के यातायात विभाग ने ऐसे लोगों से निपटने का एक अनूठा तरीका अपनाया है. राजधानी रायपुर में अब ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने वालों को पूरे दो घंटे तक थाने में बैठकर यातायात के नियमों पर आधारित फ़िल्म देखनी पड़ रही है.
यातायात पुलिस अपने इस फ़िल्म अभियान से खुश है. आम जनता भी मान रही है कि ये अभियान अगर ईमानदारी से चले तो ट्रैफ़िक नियमों की अनदेखी करने वाले लोग ज़रुर सुधर जायेंगे. लगभग दस साल पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी बने रायपुर में ट्रैफ़िक नियमों के पालन करने को लेकर आम जनता में जागरुकता तो बढ़ी है लेकिन नियम तोड़ने वाले लोगों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई है.
साल 2008 में यातायात नियमों का उल्लंघन करने वाले 54 हज़ार से अधिक लोगों के खिलाफ कार्रवाई की गई और उनसे जुर्माना वसूला गया. यह आँकड़ा 2009 में भी कम नहीं हुआ. साल 2010 में तो केवल जुलाई तक लगभग 55 हज़ार लोगों के खिलाफ यातायात के नियम तोड़ने के आरोप में कार्रवाई की जा चुकी थी.
ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों के खिलाफ जब चालान और जुर्माने से भी बात नहीं बनी तो यातायात पुलिस ने शहर के कुछ बुद्धिजीवियों और मनोवैज्ञानिकों से बात की. बैठकों के दौर चले और फिर शुरु हुआ ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों को थाने में जबरदस्ती दो घंटे तक बैठाकर यातायात पर आधारित फ़िल्म दिखाने का यह अनूठा प्रयोग.
इसके लिए दिल्ली समेत अलग-अलग राज्यों से यातायात नियमों को लेकर बनाई गई फ़िल्में मंगाई गईं. रायपुर के ट्रैफ़िक डीएसपी बलराम हिरवानी बताते हैं, "इसकी प्रेरणा हमें आंध्र प्रदेश  से मिली, जहाँ इससे मिलती-जुलती पहल की गई थी. रायपुर में हमें इसके सकारात्मक परिणाम मिल रहे हैं और पहले ही दिन कोई 150 लोगों को यह फ़िल्म दिखाई गई."
उनका मानना है कि अगर कोई व्यक्ति किसी जरुरी काम से जा रहा हो और ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने की सज़ा के तौर पर उसे पूरे दो घंटे थाने में बैठा कर फ़िल्म दिखाई जाये तो कम से कम अपना समय बचाने के लिये भविष्य में वह ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने से बाज आएगा.
मैनेजमेंट के छात्र  पंकज कुमार हड़बड़ी में थे और सिग्नल की परवाह किये बिना जब उन्होंने ग़लत तरीके से अपनी बाईक आगे बढ़ा ली तो उन्हें यातायात विभाग के सिपाही ने धर दबोचा.
दो घंटे की फ़िल्म देख कर निकले पंकज कहते हैं- " आधे मिनट का समय बचाने के चक्कर में मेरे दो घंटे बर्बाद हो गये. घर के ढेरों काम धरे रह गये. यह सज़ा किसी भी चालान, जुर्माने और सज़ा से भारी है और मुझे तो कम से कम पूरी ज़िंदगी याद रहेगी."
यातायात पुलिस से पकड़े जाने पर अधिकाँश लोग दो घंटे तक फ़िल्म देखने के बजाय जुर्माना देना बेहतर समझते हैं लेकिन यातायात पुलिस इस बात के लिए तैयार नहीं होती. फ़िल्म देखने वाले कक्ष में बैठे पारस पाठक का मानना है कि अगर इस योजना को ईमानदारी से लागू किया जाये तो लोगों में इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा लेकिन पारस मानते हैं कि इस तरह की योजनाएँ लंबे समय तक शायद ही चल पाएँ.
असल में यातायात पुलिस में कर्मचारियों की संख्या कम होने के कारण यह योजना रायपुर के कुछ चुनिंदा इलाकों में ही लागू हो पाई है. ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों को फ़िल्म प्रदर्शन करने वाले स्थल तक हर बार लाने के लिये भी यातायात पुलिस के पास कोई अमला नहीं है. ऐसे में इस अनूठी सज़ा के लंबे समय तक जारी रहने पर शक वाजिब है.
फिलहाल योजना बनाई जा रही है कि रायपुर शहर की यातायात व्यवस्था को केंद्र में रखकर एक फ़िल्म बनाई जाये और सज़ा के बतौर दिखाने के अलावा स्कूल-कॉलेज और दूसरे माध्यमों से इसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जाये.

बुधवार, 29 सितंबर 2010

7 स्थल जहाँ विचारों को मिलती है "स्वतंत्रता"

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स्वतंत्रता के 60 से अधिक वर्ष गुजर जाने के बाद आम आदमी के लिए अपनी बात कहने के स्वतंत्र माध्यम कितने है? लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले कथित जन जागरण के माध्यमों जैसे कि अखबारों और टीवी समाचार चैनलों को अब लोगों की आवाज नहीं कहा जा सकता है.

तो क्या आज "वाणी स्वतंत्रता" जैसी बातें मात्र "किताबी" रह गई हैं? सौभाग्य से ऐसा नहीं है. आज भी कम से कम 7 ऐसे माध्यम अथवा जगहें उपलब्ध हैं जहाँ पर आप खुलकर अपने मन की बात रखते हैं. बस इस और कभी हमारा ध्यान नहीं जाता!

ये वे स्थान है जहाँ एक भारतवासी मुखर हो कर अपनी बात रखता है और बहस करता है. सोच कर देखिए -

कटिंग चाय की केटली
teastall
आम से लेकर खास आदमी तक इस पेय को चाव से पीता है - इसे चाय कहते हैं. और एक कटिंग चाय की प्याली उपलब्ध करवाती है सडक के किनारे लगी केटली. केटली जहाँ मात्र चाय ही नहीं पी जाती है बल्कि क्रिकेट से लेकर विदेशनीति तक के विषयों पर खुलकर बहस होती है और मुद्दों की चीरफाड़ आम बात है.


ब्लॉग
blogging
सम्पादकों की कैंची से मुक्त और प्रकाशक की पसंद से स्वतंत्र है यह माध्यम. यह आपका अपना अखबार भी है और डायरी भी. बस मन की बात लिखते जाइए और अब भारतीय अपनी बात बहुत ही मुखरता से रख भी रहे है. नहीं मात्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हर भाषा में.


ट्विटर
twitter
और ब्लॉग का संक्षिप्त स्वरूप है ट्विटर रूपी माइक्रोब्लॉग. और ब्लॉग से कहीं अधिक शक्तिशाली भी. शक्तिशाली इसलिए क्योंकि आपकी कही बात तुरंत आपके पाठक तक पहुँचती है चाहे वह अपने पीसी के पास हो या ना होगा. क्या नेता क्या अभिनेता आज हर कोई इस माध्यम को अपना रहा है. भारतीयों का ट्विटर पर चहकना जारी है. परंतु फिर भी आज ट्विटर का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूचि में हम 8वें स्थान पर हैं.


दीवारें
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स्वीकार करते हैं कि यह एक गलत तरीका है, मगर अभिव्यक्ति का माध्यम तो फिर भी है ही. दीवारें ना-ना प्रकार के विज्ञापनों से ही नहीं, संदेशों से भी रंगी जा रही है और शायद यह सिलसिला जारी रहेगा.


कार्टून
cartoon
प्रिंट मीडिया पर भले ही पक्षपात व खबरें बेचने का आरोप लगता हो या अखबारों व टीवी चैनलों की विश्वसनियता बुरी तरह से गिरी हो परंतु कार्टून अभी भी अपनी धार बनाए हुए है अतः आम भारतीय खूद को उनसे जोड़ पा रहा है.


एसएमएस
sms
एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल तक मामूली कीमत चुका कर प्रेषित होने वाले लघु संदेश सुचनाएं ही नहीं पहुँचा रहे है, वे विचारों को फैलाने का काम भी कर रहे हैं. यकीन ना हो तो अपना मोबाइल खंगाल लें. आपके किसी मित्र ने "अफज़ल" या "राम सेना" से संबंधित कोई संदेश अग्रेषित किया होगा.


सोश्यल नेटवर्किंग साइटें
social-networking
फेसबुक, ओर्कुट, मायस्पेस, यूट्यूब... सूचि लम्बी है. सोश्यल नेटवर्किंग साइटें ना केवल मित्रों को और दूर बैठे रिश्तेदारों को आपस में जोड़ती है बल्कि ये साइटॆं विचारों को फैलाने और बहस करने का माध्यम भी बनती जा रही है. आज यहाँ रोज तस्वीरें, वीडियो, कडियाँ आदि पोस्ट की जाती है. लोग बहस करते हैं. लडाईयाँ भी होती है पर विचारों का रैला चलता रहता है.

आदमी को खिलाया कुत्ते का खाना

अफवाह फैलाने वाले शख्स को महिला ने कुत्ते का खाना खिलाया कुर्सी से बांध कर एक व्यक्ति को जबरन कुत्ते का आहार खिलाने और उस पर केरोसीन छिड़कने वाली एक युवती को यहां की एक अदालत सजा सुनाने वाली है। इस युवती को लगता था कि यह व्यक्ति उसके खिलाफ अफवाहें फैला रहा है।
बहरहाल, इस युवती को आस्ट्रेलिया की एक अदालत इस मामले में सजा सुनाने वाली है। जार्जिया बकनेल (18) पर पीड़ित व्यक्ति को चाकू दिखा कर भयभीत करने, जमीन पर लिटाने तथा केरोसीन छिड़कने के आरोप लगाये गये हैं। एएपी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ’’युवती ने उसे एक कुर्सी से बांध दिया और उसे चम्मच से कुत्ते का आहार खिलाया। ’’इसे कुत्ते खाते हैं... खाआ॓ इसे।’’
 पीड़ित व्यक्ति के सिर के पिछले हिस्से पर उसने चाकू  की मूठ से प्रहार भी किया। जार्जिया ने पिछले साल 19 नवंबर को तड़के लगभग दो बजे अपने कुछ दोस्तों के साथ इस व्यक्ति के घर जा कर उसके साथ यह अमानवीय सलूक किया था।

भारत में रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण हत्या

पुरूषों के मुकाबले भारत में लगातार महिलाओं की कम होती संख्या के कारण पैदा हो रही कई किस्म की नृशंस सामाजिक विकृतियों के बीच भारत सरकार ने स्वीकार किया है कि 2001-05 के दौरान रोजाना करीब 1800-1900 कन्या भ्रूण की हत्याएं हुई हैं।
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसआ॓) की एक रपट में कहा गया है कि साल 2001-05 के बीच करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है अर्थात इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है।
हालांकि महिलाओं से जुड़ी समस्या पर काम कर रही संस्था सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी का कहना है कि यह आंकड़ा भयानक है लेकिन वास्तविक तस्वीर इससे भी अधिक डरावनी हो सकती है। गैरकानूनी और छुपे तौर पर और कुछ इलाकों में तो जिस तादाद में कन्या  भ्रूण  की हत्या हो रही है उसके अनुपात में यह आंकड़ा कम लगता है। हालांकि आधिकारिक आंकड़े इतने भयावह हैं तो इससे इसका अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है।
इधर सरकारी रपट में कहा गया है कि 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात सिर्फ कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि इसकी वजह कन्या मृत्यु दर का अधिक होना भी है। बच्चियों की देखभाल ठीक तरीके से न होने के कारण उनकी मृत्यु दर अधिक है। इसलिए जन्म के समय मृत्यु दर एक महत्वपूर्ण संकेतक है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।
रपट के मुताबिक 1981 में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1981 में 962 था जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया है। इसका श्रेय मुख्य तौर पर देश के कुछ भागों में हुई कन्या भ्रूणकी हत्या को जाता है।उल्लेखनीय 1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम :प्री नेटल डायग्नास्टिक एक्ट, 1995 के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है जबकि इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है।
 भारत सरकार ने 2011-12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढ़ा कर 950 करने लक्ष्य रखा है। देश के 328 जिलों में बच्चों का लिंग अनुपात 950 से कम है।
सीएसआ॓ के अध्ययन के मुताबिक सबसे बड़ी चुनौती है नियमित रूप से लिंग अनुपात पर नजर रखना जो एक उत्कृष्ट जन्म पंजीकरण प्रणाली के जरिए ही संभव है।

स्मार्ट फोन के शिष्टाचार, कैसे करें मोबाइल का उपयोग

अब जबकि लगभग हर हाथ में एक मोबाइल फोन जरूर होता है, इसके उपयोग के शिष्टाचार को लेकर भी किताबें और लेख लिखे जा रहे हैं. यहाँ तक कि शिष्टाचार सिखाने वाले इंस्टीट्यूट भी अब मोबाइल शिष्टाचार को अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं. स्मार्ट फोन आपकी अपनी ऐसी दुनिया होती है जो आपको लगातार अपने मित्रों और बाकी दुनिया से जोड़े रखती है. परंतु हमें यह नही भूलना चाहिए दुनिया सिर्फ उस छोटे से डिवाइज़ तक ही सीमित नहीं है. एमिली पोस्ट इंस्टीट्यूट की एना पोस्ट के अनुसार - यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने मोबाइल फोन को किस तरह से लेते हैं. उसमें स्विच ऑफ का बटन है और वाइब्रेशन का भी, परंतु उसका उपयोग कब और कैसे करना है यह महत्वपूर्ण है. वैसे तो मोबाइल फोन के शिष्टाचार अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु कुछ आम शिष्टाचार इस प्रकार से हैं.
सार्वजनिक स्थानों, अस्पतालों में मोबाइल वाईब्रेशन पर रखें:
सार्वजनिक स्थानों तथा अस्पताल जैसी जगह पर अपने मोबाइल फोन को साइलेंट या वाईब्रेशन मोड पर ही रखें. सोचिए आप अस्पताल के आईसीयू वार्ड में बैठे हों और आपके मोबाइल पर रिंगटोन के लिए चुनी गई कोई गाने की धुन बजे तो बाकी के लोगों को कैसा लगेगा.
आवाज़ धीमी रखें:
कुछ लोगों को आदत होती है कि वे एसटीडी कॉल को प्राप्त करते ही जोर जोर से बोलने लगते हैं, हालाँकि उसकी आवश्यकता नहीं है. लोकल कॉल के दरम्यान भी अपनी आवाज को धीमी ही रखें. विशेष रूप से यदि आप सार्वजनिक स्थानों पर हों तो अपनी आवाज उतनी ही रखें जितनी मात्र आपके कानों तक जाए. यदि आपको लगे की सामने वाले व्यक्ति को आवाज सुनाई नहीं दे रही तो फोन के आसपास अपने हाथों से घेरा बना लें.
किसी से बात करते समय मोबाइल का इस्तेमाल ना करें:
जब आप किसी अन्य व्यक्ति के साथ बातचीत या चर्चा कर रहें हों तो अपने मोबाइल का इस्तेमाल टाल दें. फोन को स्विच ऑफ कर दें या फिर साइलेंट. यदि कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कॉल आ जाए तो कॉल उठाने के लिए थोड़ी दूर चले जाएँ और इसके लिए सामने बैठे व्यक्ति से क्षमा मांगे. कॉल को जल्द से जल्द खत्म कर वापस आएँ. कम महत्वपूर्ण कॉल को अनदेखा कर सकते हैं या फिर पहले से तैयार एसएमएस टेम्पलेट का उपयोग कर ऐसे कॉल करने वाले लोगों को संदेश भेज सकते है कि आप व्यस्त हैं, बाद में कॉल करेंगे
धार्मिक स्थानों पर मोबाइल बंद कर दें:
धार्मिक स्थानॉं जैसे कि मंदिर में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो आपकी मनपसंद रिंगटोन को सुनने में रूचि रखता होगा. इसलिए बेहतर होगा आप मोबाइल फोन को साइलेंट रखें. वाईब्रेशन मोड से भी किसी को परेशानी हो सकती है.
अन्य लोगों के बीच अपनी रिंगटोन ना बजाएँ:
यदि आप अपने मित्रों के इतर कुछ नए लोगों से मिल रहे हैं तो अपने मोबाइल की रिंगटोन को बदल कर कोई सामान्य धुन रख लें. यकीन मानिए लोगों किसी दूसरे के मोबाइल पर बजी गानों पर आधारित रिंगटोन सुनना अच्छा नहीं लगता.
विद्यालयों में मोबाइल फोन बंद रखें:
यदि आप विद्यार्थी हैं तो अपने स्कूल-कॉलेज में क्लास के सत्र के दौरान मोबाइल स्विच ऑफ कर दें. अधिकतर स्कूलों और कॉलेजों में पहले से यह नियम लागू है, यदि आपके कॉलेज में यह नियम ना भी लागू हो तो भी आप इसे अमल में ला सकते हैं. मोबाइल स्विच ऑफ होगा तो आपके मन में कोई गेम खेलने का विचार भी नहीं आएगा और आप पढाई में ध्यान लगा पाएंगे.

कंज्यूमर को बांधने का नया फंडा

अकसर ये देखा जा रहा है कि कंज्यूमर उन विज्ञापनों को एवॉइड करता है, जिनको वो देखना नहीं चाहते हैं। टेलीविजन पर तो अक्सर वे अपना चैनल बदल देते हैं। कॉर्पोरेट वर्ल्ड के सामने ये चुनौती है कि कैसे वे कंज्यूमर को अपने विज्ञापन के प्रति बांध के रखें। वे विज्ञापनों को बेहद इन्टरेस्टिंग और इनोवेटिव बनाने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु इसकी भी एक सीमा है।
कुल मिलाकर हुआ ये कि टेलीविजन पर विज्ञापन का खर्च तो बेतहाशा बढ़ गया परन्तु सेल्स पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। इन विज्ञापनों के प्रति उपभोक्ता का विश्वास भी कम होने लगा है। कॉर्पोरेट वर्ल्ड के सामने चुनौती यह है कि किसके माध्यम सेे अपना संदेश कंज्यूमर को बतलाएं ताकि न केवल ग्राहक को उन संदेशों पर विश्वास हो और साथ ही वह प्रॉडक्ट खरीदने के लिए भी प्रेरित हों। एक मैनेजमेंट अध्ययन में यह पाया गया है कि कंज्यूमर के प्रॉडक्ट खरीदने के निर्णय में उसके दोस्त, सहकर्मी, पड़ोसी आदि बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे बातों ही बातों में ग्राहक का दिमाग ऎसा घुमा देते हैं कि कॉर्पोरेट वर्ल्ड के करोड़ो रूपए खर्च करके बनाए गए विज्ञापन बेअसर साबित होते हैं। कॉर्पोरेट वल्र्ड के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि इस तरह के वार्तालाप को नियंत्रण में कैसे लिया जाए। मैनेजमेंट एक्सपर्ट्स इस तरह के वार्तालाप को "वर्ड आफ माउथ पब्लिसिटी" की संज्ञा देते हैं। कई दिग्गज कम्पनियों ने इसको नियंत्रण में करने के विशाल प्रयास किए हैं। उदाहरण के लिए कॉर्पोरेट वर्ल्ड की बहुराष्ट्रीय कम्पनी "प्रौक्टर एण्ड गैम्बल" ने लगभग दो लाख टीनेजर्स और करीब पांच लाख मदर्स को अपना वॉलिन्टियर बनाया है, जो बातों ही बातों में उसके प्रॉडक्ट्स की तारीफ करेंगी और ग्राहक को अप्रत्यक्ष रूप से फैमिली या दोस्ताना वातावरण में प्रॉडक्ट्स की ओर प्रेरित करेंगी।
इसी तरह से नैस्ले, फिलिप्स जैसी कम्पनियों के पास ढाई लाख से अधिक वॉलिन्टियर्स हैं, जो ग्राहकों को बातों ही बातों में अप्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के प्रॉडक्ट्स की तरफ प्रेरित करते हैं। ऎसा करने से उन्हें रिवार्ड प्वाइंट्स मिलते हैं, जिनको कई प्रकार के बेनेफिट्स में एनकैश कराया जा सकता है। इससे कम्पनियों को बेहद फायदा पहुंच रहा है। तो याद रहे यदि आपका कोई दोस्त किसी प्रॉडक्ट की बेहद तारीफ करे, तो हो सकता है कि वह किसी कम्पनी का वॉलिन्टियर हो और ऎसा करके दो पैसे कमाने की सोच रहा हो।

डिग्री से ज्यादा नौकरी को अहमियत

किसी समय बेहतर नौकरी पाने के लिए डिग्री का होना बहुत जरूरी माना जाता था, लेकिन इन दिनों यह चलन बदल रहा है। अब डिग्री रहित या स्कूल छोड़ चुके छात्रों को भी नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। स्कूल छोड़ चुके छात्रों का भी रूझान यूनिवर्सिटी में शिक्षा लेने की बजाय किसी कंपनी में नौकरी या अप्रेंटिसशिप (प्रशिक्षण) की ओर बढ़ा है। इस संबंध में "प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स" नामक कंपनी के आंकड़े जाहिर करते हैं कि उनकी ओर से स्कूल-लीवर्स के लिए एंट्री-स्कीम के तहत मिले आवेदनों में भारी उछाल आया है और पिछले दो सालों में यह संख्या बढ़कर 800 तक पहुंच गई है। दूसरी ओर "सिटी फंड मैनेजर्स" ने इस वर्ष से स्कूल लीवर्स को नौकरी देने की शुरूआत कर दी है।

गौरतलब है कि "नेटवर्क रेल" की ओर से 200 से ज्यादा अप्रेंटिसशिप प्लेसेस में प्रशिक्षण के लिए 4 हजार छात्रों की ओर से एप्लिकेशंस भेजी गई हैं। वोकेशनल कोर्सेस से संबंधित कार्य करने वाली कंपनी "सिटी एंड गिल्ड्स" के अनुसार इस वर्ष पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक छात्रों में यह रूझान पाया गया है। इन आंकड़ों का यह अर्थ नहीं है कि छात्रों में स्कूल के बाद डिग्री लेने की जरूरत में गिरावट आ गई है, लेकिन स्कूली शिक्षा के बाद सीधे ही नौकरी करने का चलन बढ़ रहा है। नेटवर्क रेल की प्रवक्ता का कहना है कि पहले महज वे ही छात्र ऎसा करते थे, जो यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने में समर्थ नहीं थे, लेकिन अब सक्षम छात्र भी यूनिवर्सिटी की डिग्री के बजाय नौकरी के व्यावहारिक अनुभव को प्राथमिकता दे रहे हैं। "मार्क्स एंड स्पेन्सर" कंपनी के प्रवक्ता के अनुसार उन्हें 30 जगहों के लिए 3 हजार छात्रों की एप्लिकेशंस मिली हैं।

अनोखी ब्रा जो बन जाती है आपातकालीन सुरक्षा मास्क

                                        यह ब्रा किसी दुर्घटना या आपातकालीन स्थिति में बहुत काम आ सकती है क्योंकि ऐसी सूरत में इसे फेसमास्क की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. सामान्य परिस्थितियों में इसे आम ब्रा की तरह इस्तेमाल में लिया जा सकता है परंतु जरूरत पड़ने पर यह दो फेस मास्क में बदली जा सकती है.
एलेना बोडनर के द्वारा डिजाइन की गई इस ब्रा को आईनोबल अवार्ड फोर इनवेशन का पुरस्कार मिला था. यह पुरस्कार उन खोजों को दिया जाता है जो सुनने में विचित्र लगे परंतु उनके कई लाभ हों.
बोडनर की डिजाइन की गई इस ब्रा ने पिछले वर्ष आईनोबल पुरस्कार जीतने के बाद काफी सुर्खियाँ बटोरी थी. परंतु तब वह परीक्षण के लिए ही बनाए गई थी. अब यह ब्रा बाजार में भी उपलब्ध हो गई है. इसे 29.95 डॉलर चुकाकर खरीदा जा सकता है. इस ब्रा को बनाने का उद्देश्य आपातकालीन स्थिति में तुरंत फेसमास्क उपलब्ध करवाना है. इस ब्रा की डिजाइन इस तरह से की गई है कि किसी भी अवांछित स्थिति में इसे दो भागों में बाँटा सकता है और इससे यह दो फेसमास्क में बदल जाती है. इसकी विशेष डिजाइन की वजह से यह मूहँ और नाक के ऊपर अच्छी तरह से चिपक जाती है.
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अब पुरूषों के लिए भी इसी तरह की कोई अनोखी डिजाइन वाला परिधान या अधोवस्त्र तैयार किया जा रहा है.

कुत्ता पालना स्टेटस सिम्बल

कुत्ते सिर्फ दो जात के होते हैं। फालतू या पालतू। फालतू मकान के गेट के बाहर और पालतू चहारदीवारी के अन्दर पाये जाते हैं।
यही इनका स्पष्ट सामाजिक वर्गीकरण है। अपनी जिन्दगी में कुल जमा इन्हीं दो किस्म के कुत्तों से पाला पड़ता आया है। इनकी एक और पहचान भी काबिलेगौर है। फालतू कुत्ते छुट्टा मिलते हैं, पालतू के गले में पट्टा मिलता है। मैं अपनी कुत्ता-संगति और तमाम निजी अनुभवों की बदौलत मुंह ऊपर उठाकर ऐलानिया तौर पर कह सकता हूं कि छुट्टा से ज्यादा खतरनाक पट्टे वाले हुआ करते हैं।
यूं तो अपनी गली में हरेक को शेर होने की सेण्ट-परसेण्ट छूट है और वह होता भी है। एक से एक खौरहा और मरियल कुत्ता भी दूसरों को अपने क्षेत्र में घुसते देखता है, तो आतंकवादी गतिविधियां चालू कर देता है। मगर आप उसको गली से उठाकर मकान के अन्दर ले आइए। सम्मानपूर्वक एक-आध कप दूध चटाइए-चुटाइए, उसमें हाथी की ताकत आ जाएगी। वह इतनी तेजी से भौंकेगा कि अड़ोसियों-पड़ोसियों के कान खड़े हो जाएंगे। कॉलोनी-मोहल्ले में आपकी इज्जत में कुछ इजाफा तो तत्काल हो लेगा।
आम आदमी का पुलिस के कुत्तों पर भरोसा नहीं रहा। अपना कुत्ता खुद पालो का शौक फोबिया का रूप लेता जा रहा है। इससे भले ही अपराधों में कमी या घरों की सुरक्षा की गारण्टी का कोई सीधा रिश्ता नहीं दिखलायी पड़ता है, फिर भी एक स्टेटस सिम्बल बन गया है कुत्ता-पालन। एक कुत्ता, एक लॉन और एक पाइप, जो कभी उच्च वर्ग की पहचान हुआ करता था, आज निम्न मध्य वर्ग की पसन्द बन चुका है। पड़ोसी से ज्यादा कुत्तों से प्यार है।    
इन दिनों मेरे शहर के हर तीसरे-चौथे घर में एक-न-एक कुत्ता जरूर मिलेगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि आज घर-घर में कुत्ते पल रहे हैं। पालतू कुत्तों का चलन बढ़ा है। इससे सड़क के कुत्तों में एक किस्म की असुरक्षा की भावना पैदा हुई है। अब वे चौराहों पर झुण्ड में खड़े होने लगे हैं। संगठित हो रहे हैं। मगर पालतू कुत्ते इकलौते रहकर भी उन पर बीस पड़ रहे हैं। जिसे फोकट की सुविधाएं प्राप्त हो जाएं, अपने लोगों पर ही भारी पड़ने लग जाता है।
पालतू कुत्तों के बीते दिनों की याद आप सभी को होगी। बेचारे छोटी-सी लोहे की जंजीर या पुरानी खटिया की टूटी हुई रस्सी में बंधे हुए मरियल-से कुंकुआया करते थे। फुरसत में, मालिक की नेमप्लेट के साथ स्वयं से सावधान होने की अंग्रेजी में दर्ज तख्ती बांचकर गौरवान्वित होने के सिवा उनकी जिन्दगी में एक कुंआरा एहसास छटपटाता रहता था। वक्त बदला है। पालतू कुत्तों ने गेट से शुरुआत कर बरास्ता ड्राइंगरूम अपनी जगहें बेडरूमों में सुरक्षित कर ली हैं।

प्रियवर झबरीले पामेरियन जी और पुंछकट्टे डोवरमैन जी तो साहब और साहबाइन के साथ ही आराम फरमाते हैं। क्या किस्मत पायी है, ग्रेट डेन साब ने, डौलमेशन महोदय ने, बुलडॉग जी ने। इनके सेपरेट एसी बेडरूम्स-बाथरूम्स हैं। खाने और जीभ लपलपाने की मुफ्त सुविधाएं हैं। नोचने को हड्डियां हैं। ताकने को मेहमान हैं। मॉर्निंग और इवनिंग वॉक के लिए सर्वेण्ट्स हैं। जहां पर नहीं हैं, मालिक स्वयं नौकर की भूमिका में हैं।

जब मैं जंजीर का दूसरा सिरा थामे हुए इस प्रजाति के विवश कुत्ता स्वामियों को जर्मन शेफर्डों और देसी डोबरमैनों के पीछे सड़कों और गलियों में लगभग-लगभग घिसटते हुए देखता हूं तो सोचता हूं, इन्हें रोककर एक बात पूछ ही लूं-हुजूर, नौकर रखने की कूबत नहीं, कुत्ते पालने का शौक पाल रहे हैं। अगर इतने ही पशु-प्रेमी हैं तो और भी जानवर छुट्टा घूम रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं पालते-पोसते? क्यों बेवजह चौदह इंजेक्शन ठुंकवाना चाहते हैं!
खैर, पालतू कुत्तों ने काटना, भौंकना, गुर्राना, दुम हिलाना, झगड़ना, स्वामिभक्ति वगैरह फालतू हरकतें अपने मालिकों की तरफ फेंक दी हैं। खुद ठाठपूर्वक लॉन, बंगलों, कमरों, कोठियों, मकानों में उछलकूद कर रहे हैं। नयी मॉडल की कारों में घूम-टहल रहे हैं। टीवी का नग्न सत्य निहार रहे हैं। ये बच्चों के प्रिय 'स्कूबी डू' हैं। साहब के शेरू, टॉमी, ब्लैकी हैं। मेम साहब के विल्सन, डोवर, चीनू हैं। कुल मिलाकर ये पालतू हैं। इन्हें गोश्त पसन्द है, गले में हड्डी लटकाना नहीं।  कुछ भी हो, इनका पिल्लत्व, इनकी सारमेयता और श्वानियत इनके पालकों को अपनेपन का एहसास तो देते ही हैं।