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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

क्या है हाइवे हिंदुस्तान?

बीबीसी हिंदी की टीम 21 मार्च से भारत के विभिन्न हिस्सों में गोल्डन क्वाड्रिलेटरल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज पर यात्रा कर रही है. 21 दिनों की इस यात्रा का उद्देश्य यह जानने की कोशिश करना है कि इन तेज़ रफ़्तार सड़कों से क्या कुछ बदल रहा है.

स्वर्णिम चतुर्भुज के प्रभावों का आकलन करने के लिए बीबीसी हिंदी के संवाददाताओं की टीम देश के दो हिस्सों में यात्रा करेगी. एक हिस्सा उत्तरी भारत से पूर्वी भारत का होगा और दूसरा दक्षिण भारत से पश्चिमी भारत का.

बीबीसी की टीम प्रतिदिन औसतन 300 किलोमीटर की यात्रा करेगी.
सवाल

भारत के भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ ने जून 2010 से प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क निर्माण का लक्ष्य रखा है. यानी एक साल में सात हज़ार किलोमीटर सड़कें.

इस योजना का मुख्य लक्ष्य राज्य की राजधानियों को गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज से जोड़ना है. स्वर्णिम चतुर्भुज देश को चार महानगरों, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई को तेज़ रफ़्तार यातायात के लिए चलने वाली सड़कों से जोड़ने वाली परियोजना है जो अब लगभग पूरी हो चुकी है.

भारत में सड़कों को जोड़ने की यह परियोजना बीसवीं सदी के 20 और 50 के दशक में अमरीका में सड़क निर्माण परियोजनाओं की याद दिलाती है. अमरीका में सड़कों ने न केवल विकास को बढ़ावा दिया बल्कि इससे व्यापार और कारोबार को बहुत बढ़ावा मिला.

यह जानने की सहज इच्छा होती है कि भारत में सड़कों के निर्माण से क्या कुछ बदल रहा है? सड़कों के किनारे की ज़मीनें महंगी हो रही हैं, नए निर्माण हो रहे हैं, नए शहर विकसित हो रहे हैं, ढाबों का चलन बढ़ा है, लेकिन इसने किसानों को खेती से दूर भी किया है, स़डकों के रास्ते एचआईवी-एड्स जैसी घातक बीमारी घरों तक पहुँच रही हैं.

कई और सवाल भी हैं. मसलन क्या इसकी वजह से शहरीकरण बढ़ रहा है? क्या इससे रोज़गार के अवसर बढ़े हैं? और क्या यह व्यापार-कोरोबार की बढ़ोत्तरी में कोई भूमिका निभा रहा है?
यात्रा
राजपथ, दिल्ली

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने पिछले दस सालों में सड़कों पर बहुत काम किया है

इन सब सवालों के जवाब तलाश करने के लिए बीबीसी संवाददाताओं की एक टीम स्वर्णिम चतुर्भुज पर तीन हफ़्ते यात्रा कर रही है.

वे यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसने लोगों के जीवन पर कैसा असर डाला है और इससे समाज किस तरह बदल रहा है? क्या इससे सचमुच एक नए भारत का निर्माण हो रहा है, जैसा कि इस परियोजना को लेकर सरकारों का दावा रहा है?

संवाददाताओं की यह टीम अपने अनुभवों को विशेष रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए श्रोताओं से साझा करेगी, तस्वीरों और वीडियो के ज़रिए बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के पाठकों से रूबरू होगी. यह टीम अपनी यात्रा के दौरान बीबीसी के श्रोताओं और पाठकों से उनके अनुभव भी साझा करेगी.
यात्रा का मार्ग

पहले चरण की यात्रा 21 मार्च को वाराणसी से शुरु होगी और 30 मार्च को कोलकाता में ख़त्म होगी. उत्तर प्रदेश से शुरु होकर यह यात्रा बिहार और झारखंड से होकर पश्चिम बंगाल में ख़त्म होगी.

चकाचौंध के पीछे का अंधेरा

अध्यादेश लागू, आत्महत्याएँ जारी

ग्रामीण गरीबों को छोटे ऋण देने वाली संस्थाओं या माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों की अनियमितताओं से निपटने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार का अध्यादेश लागू हो गया है.
इसके अंतर्गत ऋण की वसूली के लिए किसी को डराना-धमकाना एक अपराध बन गया है. इसके लिए तीन वर्ष क़ैद की सज़ा हो सकती है और एक लाख रूपए जुर्माना हो सकता है.

इस अध्यादेश पर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने शुक्रवार को हस्ताक्षर किए और राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री वी वसंता कुमार ने कहा कि इस पर तुरंत अमल शुरू हो जाएगा.
इस बीच राज्य में माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से ऋण लेकर परेशानियाँ झेलने वाले लोगों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है.
गुरुवार और शुक्रवार दो और व्यक्तियों ने डराने-धमकाने से तंग आकर अपनी जान ले ली.

आत्महत्याएँ जारी

एक घटना शुक्रवार को वारंगल ज़िले के वेंकटादरी गाँव में हुई जहाँ रमेश नाम के एक खेत मज़दूर ने आत्महत्या कर ली. उस के परिवार वालों का आरोप है कि उसे एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के लोग ऋण की वापसी के लिए परेशान कर रहे थे.
ऐसी ही एक घटना गुरुवार कड़प्पा ज़िले में हुई जहाँ वेल्लम्वारिपल्ली गाँव के एक किसान रमन्ना रेड्डी ने कीटनाशक दवा पीकर आत्महत्या कर ली. उसने दो अलग अलग कंपनियों से तीस हज़ार रुपये का ऋण लिया था लेकिन उसे वापस अदा नहीं कर पा रहा था.

अनंतपुर ज़िले में भी एक कंपनी के कर्मचारियों ने उन लोगों के घरों में तोड़फोड़ की जो ऋण वापस नहीं कर पा रहे थे.
ऐसी ही एक कार्रवाई के जवाब में खम्मम जिले में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के कार्यालय पर धावा बोल दिया और वहां तोड़फोड़ की.

नए नियम


ग्रामीण विकास मंत्री वसंता कुमार ने कहा है कि इस अध्यादेश के पारित होने के साथ ही अब केवल उन्हीं माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को राज्य में काम करने की अनुमति होगी जो अपना पंजीकरण करवाएँगीं.
इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है
वी वसंता कुमार, ग्रामीण विकास मंत्री
इसके लिए उन्हें तीस दिन का समय दिया गया है.
अध्यादेश के अंतर्गत इन कंपनियों को अपने कार्यालय में एक बोर्ड पर यह साफ़ लिखना होगा की वे किस ब्याज़ दर पर ऋण दे रहे हैं और ऋण लेने वाले पर कितना बोझ पड़ने वाला है.

इन कंपनियों पर आरोप है कि वो ऋण लेने वाले ग्रामीण ग़रीबों और महिलाओं को स्पष्ट रूप से नहीं बताते कि कुल मिलाकर उन्हें कितना प्रतिशत ब्याज़ देना होगा.
आरोप है कि कई कंपनियाँ तो 30 से 50 प्रतिशत तक ब्याज़ लेती हैं.

सरकार ने अपनी ओर से इन संस्थानों के लिए ब्याज़ दरों की कोई सीमा तय नहीं की है. मंत्री वसंता कुमार का कहना था कि यह राज्य सरकार के दायरे से बाहर है.
वसंता कुमार ने बताया, "इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है."
इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कहा जाएगा कि वो महिलाओं के समूहों को ऋण दें ताकि वो माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों का ऋण वापस लौटा सकें.
इन बैंकों की ब्याज़ दर माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कम होंगीं.
अगर बैंक यह सुझाव स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उन्हें महिलाओं के समूहों को 9600 करोड़ रुपए के ऋण देने होंगे क्योंकि माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को इन ग्रामीणों से इतना ही ऋण वसूल करना है.
आंध्र प्रदेश में एक करोड़ से भी ज़्यादा महिलाएँ स्व-सहायता समूहों की सदस्य हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद पी मधु का कहना है कि इन समूहों को बैंकों से कर्ज़ न मिलने की वजह से ही वे माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कर्ज़ लेने को मज़बूर हुए हैं.
उनका कहना है कि इन समूहों को 12 से 15 हज़ार करोड़ रुपए मिलने चाहिए जबकि सरकार सिर्फ़ 11 सौ करोड़ रुपए उपलब्ध करवा रही है

खत लिख दे सावरियां के नाम

खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू वो जान जायेंगे पहचान जायेंगे कोई तीन दशक पूर्व बंबईया फिल्म का यह गीत उन लोगों को बहुत भाता था जो दूसराेंं के लिये खत लिखने का काम करते थे और इसके बदले उन्हे चन्द पैसे मिल जाया करते थे1लेकिन अब न तो खत लिखने व पढने का काम मिलता है और न ही यह गाना बजता है1

पुराने दिनों की याद करते हुए एक खत लिखने वाले बुजुर्ग 70 वर्षीय रामाश्रय शर्मा ने बताया कि वे कक्षा चौथी में जब पढते थे तो पोस्टकार्ड पढने और फिर जवाबी पोस्टकार्ड लिखने के एवज में उन्हे एक आना मिला करता था 1 महीने में 10 से 12 आने की कमाई पोस्टकार्ड लिखने और पढने से हो जाया करती थी 1 बचपन में जेब खर्च के लिये यह रकम काफी थी1


आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त श्री शर्मा ने बताया कि नौकरी न मिलने तक वे खत पढने और लिखने का काम करते रहे 1इससे जहां गांव में उनकी अच्छी खासी पूछपरख होती थी और कमाई भी हो जाया करती थी ् लेकिन जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार प्रचार होता गया लोगों ने खुद ही लिखना पढना शुरू कर दिया1 वर्ष 1968 तक वे इस काम में लगे रहे और उनकी देखा देखी गांव के और भी पढे लिखे लडकों ने खत लिखने और पढने का काम शुरू कर दिया था 1यहां तक कि वे लोग आसपास के गांवों में भी जाकर लोेगों की चिट्ठियां पढकर सुनाने का काम कर दिया करते थे 1

श्री शर्मा ने बताया कि कुछ डाक बाबू अर्थात डाकिया भी खत पढने और लिखने का काम किया करते थे 1सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि खत पढने और लिखने वाला व्यक्ति खत की बात सार्वजनिक नहीं करता था और इस तरह वह उस व्यक्ति का विश्वास पात्र हो जाता था जिसके लिये वह खत लिखने का काम करता था1 अब न तो लोग पोस्टकार्डों का इस्तेमाल करते हैं और न ही आज के दौर में लोग किसी से अपनी चिट्ठी पढवाते हैं1 शायद इसलिए अब खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू जैसा गाना भी नहीं बजता है1