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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

राजद्रोह या धर्मयुद्ध ----sunday mag..

एक तरफ वाम आतंकवाद के आरोप में फंसे डॉ. बिनायक सेन को कोर्ट ने राजद्रोह की सजा सुनाई तो दूसरी ओर मालेगांव और अजमेरशरीफ विस्फोट के सिलसिले में हिंदू संगठनों से जुड़े युवकों पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कस रहा है लेकिन माओवाद और नक्सली समर्थकों को जहां अपना संघर्ष जनयुद्ध लगता है वहीं आतंकवाद के चलते जांच एजेंसियों के घेरे में आए हिंदू युवक इस लड़ाई को धर्मयुद्ध के तौर पर पेश कर रहे हैं। इससे राजद्रोह और धर्मयुद्ध को लेकर देश में एक नई बहस खड़ी हो गई है

                                           भारतीय राज्य व्यवस्था को हथियारबंद संघर्ष से चुनौती देना गैर-कानूनी है। यह बात पेशे से चिकित्सक और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के प्रमुख पदाधिकारी डॉ. बिनायक सेन भी अच्छी तरह समझते हैं लेकिन इसके बावजूद सेन जेल में बंद नक्सली नेताओं और प्रतिबंधित संगठन माओवादियों के बीच संदेशवाहक का काम करते रहे। बिनायक सेन पर यह भी आरोप है कि वह उन माओवादियों और नक्सलियों का इलाज किया करते थे जो हथियारों के बल पर लंबे समय से देश की सत्ता और संविधान को चुनौती देने का काम कर रहे हैं। ऐसा हथियारबंद संघर्ष भारतीय दंड संहिता में 'राजद्रोह' के बराबर का अपराध माना जाता है।
छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के सत्र न्यायालय ने जब बिनायक सेन को राजद्रोह के तहत सजा सुनाई तो रायपुर से लेकर दिल्लीClick here to see more news from this city और लंदन-अमेरिका तक इस फैसले पर सवाल उठाए जाने लगे। दूसरी तरफ साध्वी प्रज्ञा, असीमानंद दयानंद पांडे जैसे भगवाधारी और भारतीय सेना में देश की सेवा के लिए शामिल होने वाले कर्नल पुरोहित सरीखे जवान एक ऐसे 'धर्मयुद्ध' में लगे थे जिसकी इजाजत देश का संविधान उन्हें नहीं देता। उनके द्वारा मालेगांव और अजमेर सहित कई स्थानों पर किए गए बम धमाकों ने एक धर्म विशेष के लोगों को आतंकित करने का काम किया। यह दोनों ही कारगुजारियां राजद्रोह और धर्मयुद्ध को लेकर एक नई बहस खड़ी कर रही हैं।
माओवादियों के चितंन और साहित्य से ऐसा लगता है कि उन्हें न तो देश के संविधान में विश्वास है और न ही न्यायपालिका में। चर्चित नक्सली मामले में रायपुर के जिला न्यायालय ने नारायण सान्याल, डॉ. बिनायक सेन और पीयूष उर्फ पीजूष गुहा को उम्रकैद की सजा सुनाई। तीनों को न्यायालय ने देशद्रोह का षड्यंत्र रचने, विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम 1967 (यूएपीए) एवं छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत दोषी ठहराया। असल में नक्सलियों के मददगार के मामले में न्यायालय द्वारा दंडित पीयूष उर्फ पीजूष गुहा की गिरफ्तारी के बाद से ही कई राज खुलने लगे थे। तीन साल पहले हुई पूछताछ में पीयूसीएल के नेता डॉ. बिनायक सेन व नक्सलियों के नेता नारायण सान्याल के संबंधों का खुलासा हुआ था। 
केस डायरी के मुताबिक 6 मई, 2007 को चेकिंग के दौरान गंज थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी बीएस जागृत ने नक्सलियों के मैसेंजर पीयूष गुहा को संदिग्ध अवस्था में पकड़ा। तलाशी में उसके बैग से नक्सली साहित्य, नारायण सान्याल के लिखे तीन पत्र आदि मिले। पूछताछ में पीयूष ने बताया कि तीनों पत्र बिनायक सेन ने दिए थे। जांच में पाया गया कि ये पत्र नक्सली नेता नारायण सान्याल द्वारा जेल में मुलाकात के दौरान सेन को दिए गए थे। सेन ने पीयूष को उक्त पत्रों में अंकित गोपनीय कोड नंबरों पर प्रेषित करने के लिए दिए थे। सेन अक्सर नारायण सान्याल से जेल में मिलने आते थे। वह अपना परिचय नारायण के भाई तथा रिश्तेदार के रूप में देते थे। डॉ. सेन को बिलासपुर के तारबहार इलाके से गिरफ्तार किया गया।
सेन के कटोरा तालाब स्थित आवास से जब्त दस्तावेज, कंप्यूटर, सीपीयू को हैदराबादClick here to see more news from this city फोरेसिंक लैब में जांच के लिए भेजा गया। उनसे चौंकाने वाली बात सामने आई। नारायण सान्याल के खिलाफ छत्तीसगढ़ के अलावा आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र में भी अपराध दर्ज हैं। पूरे प्रकरण में 1180 पेज का आरोप पत्र पुलिस ने न्यायालय में पेश किया। हालांकि सेन की पत्नी इलिना का कहना है कि राज्य पुलिस द्वारा तैयार डायरी फर्जी है। मनगढ़ंत तथ्य तैयार कर उनके पति के खिलाफ पेश किए गए हैं।
पुलिस द्वारा पेश किए सबूत ठोस नहीं है। वे जनहित के मुद्दों पर आवाज उठाते थे। मगर, इस प्रकरण के बाद माओवादियों के चाल-चलन को लेकर चौतरफा बहस हो रही है। माओवादी नक्सली समर्थक उन्हें आतंकवादी या लुटेरा नहीं बल्कि आदिवासियों का हमदर्द और जंगल के रक्षक के रूप में पेश करते हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की मानें तो माओवादी न्यायाधिकारी या दंडाधिकारी नहीं हैं। उन्हें हथियार लेकर चलने का भी कोई हक नहीं है। सीपीआई (माओवादी) एक प्रतिबंधित संगठन है जिसकी गतिविधियां गैर कानूनी हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी अपने भाषण में यह कह चुके हैं कि वामपंथी उग्रवाद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए अकेला सबसे बड़ा खतरा है। 
असल में माओवादी-नक्सलियों की क्रांति से आतंकवाद तक की कहानी भयानक हत्याकांडों से भरी हुई है। आतंक के इस चेहरे को इन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है कि बीते छह वर्षों में जितने लोग माओवादी-नक्सली हिंसा में मारे गए उनकी संख्या इस दौरान जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में मारे गए लोगों से कहीं ज्यादा थी। इस अवधि में 2802 निर्दोष लोग नक्सल हिंसा में मारे गए। एक हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी शहीद हुए और मुठभेड़ के दौरान 977 माओवादी आतंकवादी मारे गए।

2007
से 2009 के मध्य नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 5395 घटनाएं घटीं। इनमें 557 नक्सली मारे गए लेकिन डेढ़ हजार से अधिक नागरिकों और 784 सुरक्षाकर्मियों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। माओवादी आतंकवाद अपनी जड़ें कितनी गहरी जमा चुका है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के 20 राज्यों के 223 जिले उनका शिकार बन चुके हैं। आंध्र प्रदेश में माओवादी कार्रवाइयां थमने के बाद छत्तीसगढ़ माओवाद से सबसे बुरी तरह प्रभावित है।
बस्तर का लगभग 70 फीसदी इलाका माओवादी नियंत्रण में है। नक्सली इस क्षेत्र में एक समानांतर सरकार चला रहे हैं और राष्ट्र के खिलाफ अपनी लड़ाई चालू रखने की कसम खाते हैं। इस लड़ाई को वे 'लोगों का संघर्ष' कहते हैं। बस्तर के घने जंगल माओवादियों की शरणगाह माने जाते हैं। यह 'रेड कॉरिडोर' का एक हिस्सा है जो नेपाल सीमा से आंध्र प्रदेश तक जाता है (माओवादी इसे दंडकारण्य जोन कहते हैं)। दक्षिणी बस्तर में माओवादियों ने चिंतानेर इलाके को अपनी राजधानी घोषित किया है। छत्तीसगढ़ में सीपीआई (माओवादी) के लगभग 10,000 कैडर काम कर रहे हैं जिनमें स्थानीय गुरिल्ला स्क्वायड और 'जन मिलिशिया' इकाइयां शामिल हैं। लगभग 5,000 नक्सली सिर्फ बस्तर में बताए जाते हैं। उनके पास आधुनिक हथियार जैसे रॉकेट लांचर, एके-47 राइफलें, ग्रेनेड, पिस्तौल, लैंडमाइंस, इनसास राइफलें हैं जिन्हें उन्होंने सुरक्षाकर्मियों से लूटा है।
अगर कोई सात नक्सल प्रभावित राज्यों - छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में 'करों' से अर्जित आय का हिसाब जोड़े तो यह राशि 10,000 करोड़ रुपए वार्षिक से अधिक हो सकती है। पुलिस ने 'लेवी चार्ट' बरामद किया है जिसमें ठेकेदारों, पेट्रोल पंप और भूस्वामियों, व्यवसायियों, ट्रांसपोर्टरों और इंडस्ट्रियल हाउसों से एकत्रित की जाने वाली राशि दी गई थी। वे प्राप्त 'चंदे' के लिए रसीद तक देते हैं। यह शुल्क सड़कों का निर्माण करने वाले ठेकेदारों से परियोजना लागत के 10 फीसदी से लेकर छोटे पुल बनाने वालों और अन्य से 5 फीसदी तक है। बहरहाल, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां अपने रिकॉर्डों में माओवादियों को भुगतान किए जाने वाले 'कर' को नहीं दर्शाते। आमतौर पर वे किसी खास ठेकेदार को बड़े टेंडर आवंटित करते हैं जिनके माध्यम से शुल्क वामपंथी उग्रवादियों को जाता है।
पुलिस के खिलाफ जारी हिंसा में नक्सली क्रूर हैं और वे गरीबों तक को नहीं छोड़ते इसका उदाहण पश्चिम बंगाल के बांकुरा इलाके के पुलिस जवान संजय घोष के अपहरण और उसकी निर्मम हत्या से मिलता है। नक्सलियों ने 24 जनवरी, 2010 को उसका अपहरण करने के बाद बेहद यातनाएं दीं। उसका सिर काटने से पहले उसके हाथ काट दिए गए थे।
दरअसल, नक्सली अपने वर्ग शत्रुओं की सूची में पुलिस को सबसे ऊपर रखते हैं। उन्हें लगता है कि क्रांति-विरोधी सरकार पुलिस बल के जरिए ही उनका दमन करती है। लिहाजा सुरक्षा बलों पर हमले किए जाते हैं। पुलिस बलों पर हमले से गांववासियों और पुलिस के मुखबिरों में नक्सलियों की दहशत घर कर जाती है। इस दहशत का लाभ नक्सली क्षेत्र में अपना दबदबा बनाने में उपयोग करते हैं।
झारखंड में पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इंदवार का अपहरण कर गला काटकर हत्या कर दी गई तो पश्चिम बंगाल में पुलिस सब-इंस्पेक्टर अतींद्रनाथ दत्त का अहपहण कर उसकी रिहाई के बदले में अपने समर्र्थकों को जेल से रिहा करवा लिया गया। देश के खिलाफ माओवादियों की सोच और राजद्रोह जैसा उनका आचरण इस बात से भी समझा सकता है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के प्रमुख कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने लालगढ़ के दोहोमिना गांव में संवाददाता सम्मेलन में दत्त की रिहाई का एलान किया। सरकार के साथ टकराव में माओवादियों ने दत्त को युद्ध कैदी घोषित किया। दत्त के सीने पर लगे एक पोस्टर पर लिखा गया था, 'युद्ध कैदी की रिहाई के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस।' बंगाल में सीपीआई (माओवादी) की ओर से पुलिसवालों को लिखा गया एक पत्र सामने आया जिसमें कहा गया था कि पुलिस सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दे। हमारा उद्देश्य सरकारी तंत्र को ध्वस्त कर अपना तंत्र स्थापित करना है।
छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन कहते हैं कि माओवादी नक्सली आतंकवादियों से भी कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अगर यह आतंकवाद तक ही सीमित रहता तो शायद कुछ आसानी रहती। हम आतंकवाद का नहीं बल्कि युद्ध का सामना कर रहे हैं। नक्सली लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते और हिंसा के जरिए पूरे देश पर शासन करना चाहते हैं।' इस बात की ओर मिलिट्री इंटेलीजेंस की एक अत्यंत गोपनीय रिपोर्ट भी इशारा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक माओवादी सन्‌ 2050 तक दिल्लीClick here to see more news from this city पर काबिज होना चाहते हैं। इसके लिए वह सोच-समझकर अपनी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं।
नक्सलियों का लाल गलियारा नेपाल से लगने वाली देश की सीमा से शुरू होकर आंध्र प्रदेश तक जाता है। लंबे अरसे तक नक्सलवाद को मानवीय या आदिवासी समस्या के रूप में देखती आई केंद्र सरकार ने वर्ष 2009 में सीपीआई (माओवाद) को प्रतिबंधित संगठन माना और प्रतिबंधित किया। वरिष्ठ पत्रकार और 'नक्सली आतंकवाद' नामक पुस्तक लिखने वाले विवेक सक्सेना कहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता और नक्सलवाद के विकास में सीधा संबंध देखने को मिलता है। देश में किए गए तमाम अध्ययनों से यह साफ हुआ है कि जिस राज्य में खनिज और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की जितनी ज्यादा मौजूदगी है वहां नक्सलवाद भी उतना ही ज्यादा पनपा है।'
एक मोटे अनुमान के मुताबिक वे हर साल लगभग 1,200 करोड़ रुपए एकत्रित करते हैं। गृह मंत्री चिदंबरम माओवादियों को चालाक पूंजीवादी करार देते हुए कहते रहे हैं कि वे अपना व्यवसाय अवैध ढंग से चला रहे हैं। वे किराया वसूलते हैं और टैक्स नहीं चुकाते तथा इस धन का इस्तेमाल शासन के खिलाफ करते है। बकौल चिदंबरम, 'नक्सली लुटरों की तरह बैंकों को लूट कर और खनन उद्योगों से पैेसे ऐंठ कर धन इकट्ठा करते हैं। इस धन से हथियार खरीदते हैं और सुरक्षाकर्मियों से भी हथियार लूटते हैं।
भारत, पाक, नेपाल या बांग्लादेश की सीमा पर स्थित बाजारों से आसानी से हथियार खरीदे जा सकते हैं। नक्सली इन बाजारों से हथियार खरीदते हैं।' नतीजतन आतंकवाद से भी विकराल और हिंसक चेहरा माओवादी नक्सलियों का आतंक एक प्रकार से राजद्रोह का रूप धारण करता जा रहा है। इस बात पर डॉ. सेन और उनके साथियों को राजद्रोह की सजा सुनाकर रायपुर के सत्र न्यायालय ने अपनी मुहर लगा दी है। जाहिर है, कानून के इस फैसले के बाद माओवादी-नक्सली और उनके समर्थक न्याय के लिए अब नया अभियान चलाएंगे।