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शनिवार, 17 सितंबर 2011

हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे..........
हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे,
उम्र से लम्बी स्याह काली, रात हमी तो बदलेंगे...........
गाँधी बहुत जरूरी हुए, हर काम को करने की खातिर,
... इनके बिना म्रत्यु पत्र भी, मिलता नही समय आखिर,
सच को भी सामने लाने को, जेबें ढीली करने होगी,
जो उनके मेरे मन में है, वो बात हमी तो बदलेंगे.......
हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे..........
सज्जन हमे रास ना आते, गुंडों के तलुवे चाटें,
भूखे को दाना नही, ताकतवर को रबड़ी खिलाते,
"सच का मुंह काला और झूठे का बोलबाला है",
दुनिया ना जो समझे, वो जज्वात हमी तो बदलेंगे........
हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे..........
हर हाथ तोड़ वो डालेंगे, उनको भ्रम बड़ा भारी,
सबको जूते से मसल देंगे, सत्ता के व्यापारी,
देश को जेल बनाने की, निज मन जिनने ठानी है,
उनके भ्रम भरे सारे ख्यालात हमी तो बदलेंगे........
हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे..........
नेता जो संसद में जा, बन बैठे भगवान हमारे,
क़ानून को जो जूती समझे, जनता को बेचारे,
सात पीड़ियों की खातिर, जो देश बेचने को तैयार,
ऐसे गद्दारों की, हर बात हमी तो बदलेंगे........
हम भारत के नौजबां, हालात हमी तो बदलेंगे..........

यही तो है ''माँ''

माँ मन्दिर नहीं होती
न ही भगवान
नहीं जाना पड़ता उस तक जूते उतारकर
माँ हमारा अपना कमरा है
जो राह देखता है
... ... साल भर / रात भर
हम चाहें लौटें या नहीं
और लौटकर
जूते पहने हुए ही पसर जाते हैं हम उसकी गोद में
और ज़माने भर का कीचड़
सुना देते हैं उस कमरे को
सने हुए कमरे
सुनती हुई माँएं
गुस्सा करते हैं कुछ देर
मगर कभी नाराज़ नहीं होते
नहीं फेर लेते चेहरा प्रेमिकाओं की तरह
नहीं कहते कि “तुम गन्दे हो, लौट जाओ”;

यही तो है ''माँ''

बुधवार, 20 जुलाई 2011

ग़लत नही कहा

दिग्विजय सिंह ने ग़लत नही कहा 

&

हर हिंदू शांतिप्रिय होता है लेकिन हिंदूव्त्व वाला हिंदू आतंकी होता है--

हर हिंदू शांतिप्रिय होता है लेकिन हिंदूव्त्व वाला हिंदू आतंकी होता है

आज कुछ मित्रों के साथ बैठे हुए चाय के साथ गपशप हो रही थी किी एक मित्र ने नया जुमला ढूँढ निकाला किी हर हिंदू शांतिप्रिय होता है लेकिन हिंदूव्त्व वाला हिंदू आतंकी होता है. इस पर कई मित्रो ने तस्दीक़ करते हुए कहा किी जब कोई आतंकी घटना होती तो उसकी जाँच मदरसों से शुरू होती है जबकि यह भी वास्तविकता है किी संघ क कार्यालय और उसके सहयोगी संगठन आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं और लिप्त हैं. जाँच उनकी भी होनी चाहिए और अगर द्विपक्षिशेय जाँच हो तो सही आतंकी पकड़े जाएँगे और और आतंकी घटनाओं पर रोक लग सकती है. प्रगया ठाकुर से लेकर असीमनंद तक भगवा आतंकवाद के एक लंबी श्रंखला है. और अपने आकाओं को खुश करने क लिए यह लोग आतंकी घटनायें करते रहते हैं और पाकिस्तान विरोध क नाम पर पूर्व मानसिकता क आधार पर ज़बरदस्ती एक दिशा में जाँच कर कुछ प्रतिफल ना मिलने पर भी कुछ लोगों को जेल भेज कर घटना का खुलासा कर इतिश्रि कर लेते हैं हद तो यहाँ तक हो गयी किी 15 अगस्त 2000 की पूर्व संध्या पर साबरमती बम विस्फोट कांड में कोई पुख़्ता सबूत ना होने क बावजूद भी अभियुक्तों क बयान के आधार पर आरोप पत्र दाखिल कर दिए गये क्योंकि जिस वाद की जाँच की दिशा ही मदरसे की ओर से ही शुरू की गयी थी यदि सही विवेचना हुई होती तो वास्तविक आतंकी पकड़े जाते और आतंकवाद क ख़ात्मे की ओर हमारा एक कदम होता.

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कोई तुमसे पूछे ....

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,

तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

एक दोस्त है कच्चा पक्का सा ,
एक झूठ है आधा सच्चा सा .
जज़्बात को ढके एक पर्दा बस ,
एक बहाना है अच्छा अच्छा सा .
जीवन का एक ऐसा साथी है ,
जो दूर हो के पास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .
हवा का एक सुहाना झोंका है ,
कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा .
शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले ,
कभी अपना तो कभी बेगानों सा .
जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र ,
जो समंदर है , पर दिल को प्यास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .
एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है ,
यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है .
यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं ,
पर कभी - कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है .
यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है ,
पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं

अनचाहे अनजाने पल

अनचाहे अनजाने पल.
   गये कहाँ मस्ताने पल.
नागफ़नी के काँटों से, 
   मरुथल से वीराने पल.
कौन, कहाँ, कब, क्यूँ, कैसे,
   लगे सवाल उठाने पल.
रात तुम्हारी यादों के,
   आ बैठे सिरहाने पल.
ख़ामोशी के आलम में,
   बीते कितने जाने पल.
तेरे जिस्म की ख़ुशबू के,
   देकर गये ख़ज़ाने पल.
उस बरगद की छाँव तले,
   बैठ रहे सुस्ताने पल.
जीवन रेत पे बिखर गये,
   मोती के थे दाने पल.
तेरी मेरी दूरी के,
   फिर आ गये जलाने पल.
जाने फिर कब लौटेंगे,
   वो गुज़रे दीवाने पल.
तुम और मैं, हम हो बैठे -
  थे कितने मनमाने पल.
सदियों पर इल्ज़ाम बने,
   निकले बहुत सयाने पल.
इस दुनिया में ऐ "साबिर"
   कौन है क्या ? न जाने पल.

आग बरसती असमान से, मेघा तुम कब बरसो

आग बरसती असमान से, मेघा तुम कब बरसोगे।
सड़कें सूनी गलियां सूनी, सूने हुए नजारे रे,
मंदिर सूने मस्जिद सूनी, सूने मठ गुरूद्वारे रे,
घाम पसरता डाली -डाली, गर्मी द्वारे -द्वारे रे,
जनजीवन बेहाल हो गया, सिकुड़े नदी किनारे रे ,
श्याम रंग संग लगन लगते, तन थे जो उजियारे रे,
चातक पीहू-पीहू भूले, पानी -पानी पुकारे रे,
हम तरसे तेरे बिन बदरा, तुम भी हम बिन तरसोगे।
आग बरसती असमान से, मेघा तुम कब बरसोगे।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मत चाहो उसे जिसे तुम पा न सको,

मत करो कोई वादा जिसे तुम निभा न सको,
मत चाहो उसे जिसे तुम पा न सको,
प्यार कहाँ किसी का पूरा होता है,
इसका तो पहला शब्द ही अधूरा होता है.. !!

...............ISKA JAWAB...............

माना की प्यार का पहला अक्षर अधूरा है,
लेकिन 'प' को निकल दो तो यार रह जाता है
और आप जैसा यार हो
तो ज़िंदगी से भी प्यार हो जाता है
...............……..

यूं तो प्यार करने वाले तुम्हें कम न मिलेंगे,
मिल जाएंगे हम जैसे बहुत ,,, पर हम न मिलेंगे.

...........................

उन्हें भूलने की कोशिश की मैंने,
दिल ने कहा याद करते रहना...
वो हमारे दर्द की फरियाद सुने न सुने,
अपना तो फ़र्ज़ है उन्हें प्यार करते रहना...............
रात गुमनाम होती है दिन किसी के नाम होता है !!
हम ज़िंदगी कुछ इस तरह जीते हैं ह्रर लम्हा दोस्तों के नाम होता है
उधर मची थी चीख-पुकार,
इधर केन्द्रीय मंत्री का 'कैटवॉक शो'

नई दिल्‍ली. ये हैं केंद्रीय मंत्री और रांची के सांसद सुबोधकांत सहाय। कल मुंबई में धमाकों से मासूम मारे जा रहे थे और इसकी सूचना इन तक पहुंच चुकी थी, इसके बावजूद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक कुमार प्रधान की सुपुत्री के डिजाइन किये कपड़ों (?) के फैशन शो में शामिल हुए।इस अर्द्धनग्न पार्टी में कौन-कौन शामिल था, ये गौर करने लायक है- भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव आरती मेहरा, भाजपा राष्ट्रीय सचिव वाणी त्रिपाठी, पूर्व नागरिक उड्यन मंत्री राजीव प्रताप रूढ़ी की पत्नी नीलम प्रताप रूढ़ी, मशहूर कलाकार सुरेश ओबेराय, निर्देशक मधुर भंडारकर, मुगदा गोडसे, अनुष्का शर्मा और भी कई लोग। इनसे जब एक पत्रकार ने पूछा कि आज मुंबई में हमला हुआ है और आप लोग कैटवाक देख रहे हैं, तो इनमें से ज्यादा का जवाब था, जिंदगी जिंदादिली का नाम है, हंस के जिये जा...

शनिवार, 2 जुलाई 2011

आनंद हर्षुल की एक कहानी


पुतले                      A story of - आनंद हर्षुल
 वे सीमेंट के थे -- छ: पुतले। सीमेंट के रंग की ही साँवली त्वचा लिए। काँच की रंगीन गोलियों और चीनी मिट्टी के टूटे बर्तनों से,उनकी त्वचा सजी थी। (इन काँच की गोलियों का खेल, बच्चे अब भूल चुके थे। बच्चे अब कम्प्यूटर के सामने बैठकर दुनिया से खेल रहे थे।और चीनी मिट्टी के बर्तन इस तरह तड़क चुके थे, कि खाने की टेबल पर किसी काम के नहीं रह गए थे।) पुतलों की देह, मनुष्य के इस्तेमाल से बाहर आ गयी चीजों से सजी बनी थी। यह अलग बात है कि मनुष्य के कारीगर हाथ उनकी देह पर झिलमिलाते से दिख रहे थे: मनुष्य की अंगुलियों की झिलमिलाती थाप । पुतलों का कद बहुत बड़ा नहीं था। वे बच्चों के कद में जैसे बड़े लोगों का चेहरा पहने हुए थे। इनमें चार पुरुष थे और दो स्त्रियाँ। स्त्रियाँ पुरुषों के बीच थीं। सर पर टोकरी रखीं। एक स्त्री की टोकरी में मछलियाँ थीं और दूसरी स्त्री की टोकरी में सब्जियाँ । टोकरी में रखी मछलियाँ, बरसों हो गए अब तक सड़ी नहीं थीं और सब्जियाँ अब भी ताजी थीं। सीमेंट के पुरुषों की पीठ उनके बीच में खड़ी उन दो सीमेंट की स्त्रियों की ओर थीं । पुरुष - पुतले, स्त्री - पुतलों को नहीं पृथ्वी की चार दिशाओं को देखते खड़े थे। पृथ्वी की चारों दिशाएँ पुरुष-पुतलों के कंचे की आंखों में आकर डूब रहीं थी। इन छ: पुतलों के चारों ओर लोहे की मोटी छड़ों से बना गोल घेरा था। घेरा, सड़क से ढ़ाई फुट ऊँचे ईंटों के गोल प्लेटफार्म पर गड़ा हुआ था। लोहे की छड़ों के सिरों पर भाले थे। भालों की नोक, पुतलों को देखो तो ऑंखों में चुभती थी। यह किसी को मालूम नहीं था कि पुतले जब घेरे के बाहर देखते हैं तो उनकी कंची ऑंखों में भाले की छाया गड़ती है या नहीं... कोई यह सोचता ही नहीं था कि पुतले भी देखते होंगे स्त्री पुतले स्त्री की तरह और पुरुष पुतले, पुरुषों की तरह देखते होंगे -- इस चौक से जितना उन्हें दिखता होगा। उन पुतलों के आसपास, लोहे के गोल और नुकीले घेरे के भीतर, मखमली घास उगी थी हरी घास के ऊपर फूलों के छोटे-छोटे पौधे उभरे हुए थे -- कुछ इस तरह कि कोशिश कर थोड़ा और उभरना चाह रहे हों .... थोड़ा और आसमान की ओर उठना ... थोड़ा और पुतलों के कद को छूने की कोशिश करना ... उन उभरते फूलों ने, उस गोल घेरे को चटक रंगों से भर दिया था -- नीला, पीला, लाल बैगनी... रंगों में घेरे के भालों की नुकीली और लोहे के स्वाद - सी छाया कहीं-कहीं गड़ी सी दिख रही थी। इन फूलों के पास, बच्चों को भाने वाले सभी रंग थे। कभी कोई रंग फूलों का खटकता था बच्चों के मन में तो आश्चर्य कि फूल अपना रंग बदल लेते थे। जबकि बच्चे, उन फूलों को उस व्यस्त चौराहे के गुजरते हुए, बस एक झलक ही देख पाते थे। बच्चों की उस एक झलक में उपजी खटक को, सीमेंट के इन पुतलों के आस-पास उगे फूल तुरंत पकड़ लेते थे और मुस्कुराते हुए अपना रंग बदल देते थे कि बच्चा जब अगली बार गुजरे चौराहे से तो अपनी पसंद का रंग , फूलों में देख सके। फूल ऐसे खिल थे, जैसे वे पुतलों को छूने की कोशिश कर रहे हों। हरी घास इस तरह बेचैनी थी, जैसे वह ऐसी हलचल अपने भीतर चाह रही हो कि पुतले जो दिखने में बड़ों की तरह थे वे मन से बच्चे बन, उस पर खेल सकें। फूल और घास की इस कोशिश को आसमान ध्यान से देख रहा था और आसमान का नीला रंग, पुतलों के लिए हो रही, फूल और घास की इस निश्छल कोशिश पर झर रहा था... चौक की गोल ऊंचाई पर उगी, इस हरी घास की जमीन पर, फूलों के पौधों के साथ-साथ, वे पुतले भी उगे हुए से ही थे -- मनुष्य की गढ़ी थोड़ी सजावटी और थोड़ी बनावटी उस घास की हरी ऊंचाई-निचाई पर । इसीलिए वे छ: पुतले एक दूसरे से थोड़ा ऊपर नीचे खड़े थे। स्त्री - पुतलियाँ ढाल पर थीं कुछ इस तरह कि चौक से उतरकर बाजार चली जाएँगी -- सब्जी और मछली बेचने और पुरुष - पुतले अपने सामने दिखती दिशाओं पर निकल पड़ेंगे, अनंत यात्रा पर जो समुद्र के किनारे जाकर खत्म होगी या समुद्र के तल पर। पुतले इस शहर के सबसे अभिजात्य चौक पर खड़े थे सिविल लाइन्स स्क्वैअर पर। शहर इसी चौक से उत्पन्न होने और इसी चौक पर समाप्त होने के लिए अभिशप्त था। यह चौक उस कॉलोनी के मध्य में था जो अपनी ताकत से इस शहर को और इस राय को चला रही थी... इस राय का मुख्यमंत्री, सारे मंत्री, सारे आई.ए.एस., इसी कॉलोनी में रहते थे। वे छ: पुतले अपनी कंची आंखों से उनकी आवाजाही देखते रहते थे। इन पुतलों की पलके थीं सूर्य और चंद्रमा। पुतलों की कंची ऑंखें, सूर्य की रोशनी में जागती थीं और चंद्रमा की रोशनी में सोती थीं। पुतलों की पलकें पुतलों के चेहरे पर नहीं आसमान में थीं और इस तरह आसमान में छ: सूर्य और छ: चंद्रमा थे, जब तक चौक पर थे छ: पुतले । सबसे बड़ी बात यह थी ये पुतले, महापुरुषों के पुतले नहीं थे। महापुरुषों के पुतले अपनी ऑंखों से कुछ नहीं देख पाते हैं। वे घने अंधेरे में शहर के कई चौराहों पर खड़े रहते हैं। महापुरुषों के पुतलों के लिए, दिन और रात बराबर हैं। शहर और जंगल बराबर हैं। महापुरुषों के पुतले देखने के लिए नहीं, महान भव्यता देने के लिए शहर में जहाँ-तहाँ खड़े हैं, जैसे खड़े हैं वे जंगल में, शहर में नहीं। इस राय का मुख्यमंत्री, सारे मंत्री, सारे अधिकारी , महापुरुषों के पुतलों के कारण ही इस चौराहे पर सामान्य जनों के पुतलों को अनदेखा करते हुए, महान भव्यता में आवाजाही कर रहे हैं : बेशर्म आवाजाही । इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर पर खड़े पुतले, जिनके पास महापुरुषों का चेहरा नहीं था एक दूसरे की पीठ को महसूस कर रहे थे। वे घूमकर, एक दूसरे की पीठ देखना चाह रहे थे। पर वे घूम नहीं पा रहे थे। पैर उनके गड़े हुए थे हरी घास के नीचे बिछी, काली के बाद भूरी और कड़ी मिट्टी के भीतर। इसलिए पुतलों के पास एक दूसरे का चेहरा नहीं था और उन्हें यह पता नहीं था कि लगभग वे एक जैसे दिखते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं था कि जब एक पुतला, मन ही मन मुस्कुराता है, तब ठीक उसी क्षण, सभी पुतले मन ही मन मुस्कुराते हैं। जब एक पुतला होता है दुखी तो सभी पुतले होते हैं दुखी। सच तो यह था कि पुतलों के पास खुद के चेहरे भी नहीं थे और उन्हें यह नहीं पता था कि वे दिखते कैसे हैं। वे अपने को रचने वाली मनुष्य ऍंगुलियों की हरकतों को याद कर अपने चेहरे की कल्पना करते रहते थे और कभी ठीक-ठाक ढंग से अपने चेहरे तक अपनी कल्पना को नहीं पहुँचा पा रहे थे । खुद के चेहरे तो मनुष्यों के पास भी ठीक-ठाक नहीं हैं ...आईना देखो तो चेहरा दिखता है... आईने के सामने से हटते ही चेहरा पास से गायब हो रहा है.... मनुष्य अपने चेहरे के आभासों को रच रहा है... मनुष्य चेहरे के आभासों के साथ जी रहा है... मरते समय मनुष्य के पास हमेशा दूसरों के चेहरे रहते हैं.. मनुष्य दूसरों के चेहरों से रची गहराई में धीरे-धीरे डूबते हुए मरता है। पुतलों के पास कोई आईना नहीं था। पुतलों के लिए अगर आसमान को आईना मान लें तो आसमान में पुतले अपना चेहरा नहीं देख पा रहे थे। पुतलों को चौराहे से गुजरती मनुष्यों की ऑंखे देख रही थीं जरूर, पर मनुष्यों की ऑंखों में उभर नहीं रहा था पुतलों का चेहरा। इन पुतलों पास दृष्टि थी अनंत। इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर की दक्षिण दिशा की सड़क पुलिस लाइन तक जाकर खत्म हो रही थी । कह सकते हैं कि यह सड़क पुलिस के बूटों की आवाज और खुरदुरे खाकी रंग तक पहुँचा रही थी क्योंकि जैसे ही सड़क पुलिस लाइन के गेट के भीतर घुसती -- बदल जाती थी। वह पुलिस की सड़क बन जाती और सामान्य आदमी जब उस पर पैर रखता, गेट के बाहर से गेट के भीतर, तो उसे अपने पैरों के पंजे, अपने लगना बंद हो जाते थे। सामान्य आदमी को लगता कि उसके पंजे खाकी वर्दी के बूटों के नीचे आ रहे हैं, -- बार-बार और कुचलते-कुचलते बच रहे है और कभी-कभी कुचल भी जा रहे हैं । इस तरह कि सामान्य आदमी लहूलुहान पैर लेकर घर लौट रहा था और कई दिनों तक चलता रहता था -- लंगड़ाता। इसी सड़क की बायीं ओर सिविल लाइन्स स्क्वैअर को छूते हुए सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला दिख रहा था । पुराना बंगला : मंगलोरी खपरैलों से ढंका । खपरैल काई के धब्बों से भरे हुए थे । बंगले से कई गुना बड़ा, बंगले का खुला क्षेत्र था -- पेड़ों के साथ और पेड़ बंगले के साथ थे। बंगला पूर्व मुख्यमंत्री के साथ था जो शहर के बीचों बीच, एक बड़ी भूमि को घेरे, धरती पर थोड़ा धँसा सा अपने पुरानेपन पर खड़ा था। बंगला इतने पुरानेपन पर था कि रंगरोगन के बावजूद यह लग रहा था कि यह थोड़ा और पुराना होगा तो ध्वस्त हो जाएगा। यह पुरानापन सिर्फ बाहर था -- अंदर बंगला भव्य था। यह जनता को धोखा देने के लिए था कि देखो पूर्व मूख्यमंत्री को कितना जर्जर बंगला दिया गया है। जबकि यह दिया गया नही,ं उनके द्बारा चुना गया बंगला था। जनता बंगले के भीतर कभी नहीं जाती थी और हमेशा बंगले का बाहरी ध्वस्त-सा दृश्य अपने मन में रखती थी और खुश होती थी। इसी सड़क के दायीं ओर एक बड़े व्यापारी का विशाल दुमंजिला बंगला था जो हमेशा सूना दिखता था, जैसे वह व्यापार मे ंलिप्त अपने मालिक के मुक्त होकर इस शहर में आने का इंतजार करता खड़ा हो। पूर्व मुख्यमंत्री का सरकारी बंगला, इस व्यापारी के बंगल के सामने दयनीय दिख रहा था। यह बस दिखना था कि वस्तुएँ जैसे दिख रही थीं वैसी वे दर असल थी नहीं । व्यापारी के बंगले से यादा ताकत, पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के भीतर अब भी मौजूद थी। यही व्यापारी, पूर्व मुख्यमंत्री के चरणों में लोट चुका था -- धन के साथ, जब वे मुख्यमंत्री थे और शब्द 'पूर्वÓ उनके साथ नहीं लगा था। अब यह व्यापारी नए मुख्यमंत्री के चरणों में लोट रहा था। व्यापारी लोटता है तो चरणों में धन बिखरता है। जितना धन व्यापारी चरणों में बिखेरता है -- उससे कई गुना यादा धन वापस बटोर कर ले जाता है। जिन चरणों में धन बिखरता है, वे यह सब जानते हैं। चरणों के आस पास बिखरा धन दिखता है, पर व्यापारी कुछ देकर जो अधिक ले जाता है -- वह धन जनता का है और इसीलिए मुख्यमंत्री या मंत्री या अधिकारी को वह धन दिखायी नहीं देता है। व्यापारी का बंगला कभी भी पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर टक-टकी लगाकर नहीं देखता है। वह जब देखता है कनखियों में देखता है। कुछ इस तरह कि उसके देखने को पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला पकड़ न पाए। देखों इस तरह कि न देखने जैसा लगे। पूर्व मुख्यमंत्री को अपने सामने झुके सिर पसंद हैं -- उनके चरणों को देखते सिर। पूर्व मुख्यमंत्री ने यह सोचा नहीं था कि वे दुबारा, सत्ता पर नहीं आ पाएंगे। वे नए बने राय के पहले मुख्यमंत्री थे जोड़-तोड़ में माहिर। पर राय के दूसरे चुनाव में, उनका दल बहुमत नहीं पा सका था और उन्हें वह बंगला छोड़ना पड़ा था जिसकी दिशाएं वास्तु शास्त्रियों और जिसका मुहूर्त योतिषों ने बहुत ठोक बजाकर तय किया था। मुख्यमंत्रीत्व काल का वह बंगला, कलेक्टर से छीना गया था, क्योंकि राय का यह पहला मुख्यमंत्री कभी कलेक्टर था और एक बड़े भ्रष्ट-कांड में फंसने से बचने के लिए राजनीति के शरण में आया था। वह उस बंगले को शुभ समझता था। राजनीति इतनी उसे फली थी कि वह नए राय का पहला मुख्यमंत्री बन गया था। पर अब ऐसी स्थिति नहीं थी। अब वे पूर्व मुख्यमंत्री थे और किसी का कोई बंगला छीन नहीं सकते थे। उन्हें सरकार से प्रस्तावित दो चार बंगलों में से एक चुनकर संतोष करना था: फालतुओं में एक फालतू को चुनने सा। पूर्व मुख्यमंत्री के पास निजी बंगले असंख्य थे। देश के हर बड़े शहर में और विदेश में पता नहीं किसके किसके नाम पर बंगले थे। पर सरकारी बंगले में रहना, सत्ता में रहने जैसा था। जर्जर दिखते बंगले के भीतर रहते हुए पूर्व मुख्यमंत्री जर्जर सत्ता के भीतर रह रहे थे। सत्ता से हटते ही, ठीक दूसरे दिन, पूर्व मुख्यमंत्री के कमर से नीचे का हिस्सा मर गया -- अचानक । वे अपने कार्यकत्ताओं को गाली बकते ढह गए फर्श पर, फिर जब उठे तो व्हील चेअर में थे। उन्हें अपना ही पेशाब दिख रहा था, पर महसूस नहीं हो रहा था कभी-कभी धोखे से उनकी अंगुलियाँ कमर के नीचे चल देतीं तो टट्टी या पेशाब से लिथड़ जाती थीं और वे थोड़ी टूटती और बिखरती सी दयनीय आवाज में अपने अधीनस्थों और परिजनों पर चिल्लाने लगते थे.. हास्यापद स्थिति थी, जिससे दु:ख चू रहा था। पूर्व मुख्यमंत्री के शरीर से चू रहे इस दु:ख को, पैसा पोछ नहीं पा रहा था। सार्वजनिक जगहों पर बड़ी मुश्किल हो रही थी। वैसे तो उनकी कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह ढँका रहता था। -- महँगी खुशबू में डूबा हुआ। पर बदबू को ढँकना इतना आसान नहीं था। बदबू उनकी कमर के नीचे बिखेरी गयी खुशबू को फाड़ती आखिर ऊपर आ ही रही थी और राय में जहाँ- तहाँ फैल रही थी। पूर्व मुख्यमंत्री का इस बदबू पर कोई बस नहीं था। वे अपने पुन: सत्ता में आने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें पता था कि सत्ता में आते ही उनकी कमर के नीचे का हिस्सा पुन: जीवित हो जाएगा और कमर के नीचे से उठती बदबू , खुशबू में बदल जाएगी .... एक सुबह इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर के इन छ: पुतलों ने देखा कि पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने एक दुकान सजी हुई है। बंगले के काँटा-तार के घेरे ( जिसमें कुछ लतरें, जिद कर चढ़ी हुई ं थीं और जिनकी पत्तियाँ धूल से भरी हुई थीं) पर वस्तुओं की खाली चमकीली पालिथीन की थैलियाँ और खाली पुट्ठे के डिब्बे, बड़ी जतन से तार के काँटों पर फँसाकर सजा दिए गए थे। घेरे के नीचे सड़क किनारे टीन और प्लास्टिक के छोटे-बड़े डिब्बे तथा बोतलें, करीने से सजी रखी हुई थीं। इस दुकान में मशरूम के डिब्बे से लेकर, चाकलेट के डिब्बे तक थे। इसमें कंडोम से लेकर, एंटी सेप्टिक क्रीम तक के डिब्बे और सिगरेट के डिब्बे से लेकर, क्रार्नफ्लेक्स तक के डिब्बे थे। इस दुकान में राशन और तेल के डिब्बे भी थे। बासमती चावल की पालीथीन-थैली अपने भीतर इस तरह हवा भर कर फरफरा रही थी कि लग रहा ता चावल से भरी हुई है। सड़क किनारे रखे खाली डिब्बों को देखकर कोई पता नहीं कर सकता था कि वे खाली हैं, पर काँटातार पर लटकी पालीथीन की थैलियाँ अपने खाली और हवा से भरे होने को बार-बार कह रही थीं। इन खाली डिब्बों और पालिथीन की थैलियों के बीच एक आदमी बैठा था -- जिसका कद पांच फुट आठ इंच था। शरीर तगड़ा और रंग काला था। सूरज बरसो से उसके खुले शरीर से लिपट रहा था सीधे । शरीर पर उसने बस चड्डी पहन रखी थी -- शेष देह नंगी थी, एड़ियों तक : काली चमकती। सूरज इसलिए सुनहरा था कि उसने इस आदमी के शरीर से रंग गोरा सोख लिया था। इस आदमी की काली देह पर, जहाँ-तहाँ मैल की पतर्ें उभरी हुई थीं। यह आदमी बरसों से नहाया नहीं था। वह बस बारिश में भीगता रहा था -- बरसों से और बारिश ने उसे उसे जितना साफ किया था छूकर, यह आदमी उतना ही साफ हुआ था। बारिश के बाद, हवा और धूल ने उसे जितना मैला लिया था -- वह उतना मैला होता गया था। उसकी दुकान भी बारिश और हवा के खेल के भीतर फंसी हुई थी । दुकान को हवा और बारिश मिटाने लगते थे और वह उन्हें सहेजता था। होता यह था कि दुकान के हवा से उड़ जाने पर या पानी में बह जाने पर वह शहर के मुख्य बाजार की ओर निकल पड़ता था देर रात, जैसे थोक व्यापारियों के यहाँ कोई चिल्हर विक्रेता खरीददारी के लिए जाता है। बंद दुकानों के सामने फेंक दी गयी खाली पालिथीन की थैलियों, डिब्बो और बोतलों वह इस तरह उठाता था, जैसे वे भरे हुए हैं। रात उसके उठाए खाली डिब्बे, बोतल और पालीथीन की थैलियाँ अंधेरे से भरे हुए रहते थे। सूरज उगता सुबह तो भी डिब्बों में अंधेरा भरा रहता था। पालीथीन थैलियों और प्लास्टिक की बोतलों में अंधेरे के साथ-साथ दिन के उजाले की छाया भी बैठी रहती थी। वह आदमी उनके खालीपन को नहीं पहचानता था। उसे खाली डिब्बे, पालीथीन थैलियों और बोतलें -- वस्तुओं से भरी और भारी लगती थीं। वह जब पानी की खाली बोतल का मुँह आसमान की ओर उठा अपने ओठों से लगाता ता तो उसका भला गट्गट् की आवाज निकालने लगता था। चावल की पालीथीन से उसकी हथेली पर चावल गिरने लगता और कार्नफ्लेक्स के रंगीन डिब्बे से कार्न फ्लेक्स वह फॉकता तो मुँह से कुरुम कुरुम की आवाज उठने लगती। सिगरेट के खाली डिब्बे से वह सिगरेट निकालता और माचिस की खाली डिब्बी से तीली निकालकर वह सिगरेट को उस तीली से छूता तो रोशनी फूटती और सिगरेट जलने लगती थी। वह आदमी अभी सिगरेट का लंबा कस खींच रहा था और धुआं जब उसने अपने फेफड़ों से बाहर छोड़ा तो चौराहे पर खड़े छ: पुतले उस धुएं में डूबे गए। वह दिन भर ग्राहकों का इंतजार करता रहता था। वह रातभर ग्राहकों का इंतजार करता। ग्राहक कोई नहीं आता। उसका मन खाली डिब्बों और पालिथीन की वस्तुएं तो रच लेता था, पर ग्राहक नहीं रच पा रहा था। हवा और पानी ही थे उसके ग्राहक आते और पूरी दुकान का समान एक बार में खरीद कर ले जाते। वह खुश होता कि सब कुछ बिक गया और फिर दुकान सजाने निकल पड़ता -- खाली डिब्बे, पालिथीन की थैलियाँ बीनने । बीनते- बीनते वह अपनी दुकान की पुरानी जगह को भूल जाता था। पर उसे यह लगता था कि वह एक जगह पर ही बरसों से वस्तुओं को बेचता रहा है अब तक। इस तरह वह पूरे शहर भर में अपनी दुकान लगाता घूम रहा था और पूरा शहर उसके लिए दुकान की एक छोटी जगह में बदल चुका था। पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने की यह जगह भी उसे ऐसी लग रही थी कि वह बरसों से यहां बैठा है। अपनी दुकान सजाए और सीमेंट के छ: पुतले उसे देख रहे हैं -- लगातार, जैसे उसकी दुकान के सामने लगातार मौजूद है छ: ग्राहक जो उसकी दुकान की किसी भी वस्तु को खरीदने अब तक झुके नहीं हैं। वह दिन में दो-तीन बार सीमेंट के पुतलों के चेहरों के सामने पालिथीन की थैली और डिब्बे लहराते हुए मोल भाव कर चुका है। रेट फिक्स है... रेट फिक्स है, वह चिल्ला चुका है कई बार। पहली बार उसे ग्राहक दिखे है एक साथ जो टीक उसकी तरह उसकी दुकान के सामने खड़े हैं। पूर्व मुख्यमंत्री की कार, उनके बंगले के भीतर गयी कि बाहर बंगले के गेट पर तीन सिपाही आए तुरन्त । पूर्व मुख्यमंत्री के आदेश की हड़बड़ी और बेचैनी उन तीनों के चेहरों पर इस तरह थी कि वे एक चेहरे के सिपाही लग रहे थे। उन तीन सिपाहियों ने उस आदमी को घेर लिया जो पूर्व मुख्यमंत्री के गेट पर दुकान लगाए बैठा था खाली डिब्बों और पालिथीन की थैलियाँ की । उन तीनों ने उस आदमी पर हमला बोला सबसे पहले काँटा-तार की फेंसिग से लटकी पालिथीन की थैलियों और पुट्ठों के रंगीन डिब्बों को नोच-नोचकर एक जगह ढेर बना दिया। फिर वे तीनों, जमीन पर सजे काली डिब्बों को पैरों और हाथों दोनों की मदद से समटेने लगे। अब उस आदमी की दुकान एक ढ़ेर में बदल गयी थी। उनमें से एक सिपाही ने अपनी जेब से लाइटर निकाला खट्ट की आवाज हुई। एक सुनहरी लौ चमकी। लौ के साथ-साथ वह आदमी दुकान के ढ़ेर पर झुका और लौ ने ढेर को छू लिया। अब उन तीन सिपाहियों का ध्यान, उस आदमी पर गया जो पूर्व मुख्यमंत्री के गेट के सामने खाली डिब्बों और पालिथिन थैलियों की दुकान लगाने की गुस्ताखी कर चुका था । उन्होंने देखा कि वह आदमी उन्हें घूरता खड़ा है नंगधंड़ग, बायें हाथ से अपने अंडकोषों को सहलता । सिपाही जब तक सामान का ढेर लगा रहे थे वह आदमी यह मान रहा था कि ये पूरा सामान खरीद रहे हैं : अच्छे ग्राहक । उन तीनों ने ध्यान नहीं दिया था -- वह आदमी खुश और उत्तेजित उनके आगे-पीछे होता रहा था । जब उन तीनों में से एक ने ढेर को लाइटर की लौ से छुआ तो अब वह इस घटना को समझने की कोशिश कर रहा था कि कोई दुकान से सामान खरीद कर आग के हवाले क्यों करेगा ... उस आदमी के चेहरे पर उन तीनों को घूरना जो उभरा था, इसीलिये उभरा था । वे तीनों गुस्से से भर गए । वे आगे बढ़े । उस घूरते आदमी की ओर हाथ उठाकर, गाली बकते हुए । वह आदमी उन्हें घूरता, पीछे हटने लगा । वे तीनों जितने कदम आगे बढ़ रहे थे, वह आदमी उतने कदम पीछे हट रहा था -- सड़क के किनारे-किनारे, जहाँ उसकी सीध में, उसकी दुकान ढेर बनी जल रही थी । वह जलते ढेर से दूर हो रहा था । पर उस आदमी का घूरना लगातार बना रहा -- लाल ऑंखों से । वे तीनों उसके पीछे दौड़े तो वह आदमी अपना घूरना, सड़क के किनारे, उन तीनों के लिये गिराकर मुड़ा और दौड़ पड़ा । उन तीनों ने उसे इतनी दूर तक दौड़ाया था कि वह पूर्व मूख्यमंत्री के घर के सामने की जगह को भूल जाए। वापस ना आए दुबारा । दुबारा सजा न ले अपनी खाली दुकान । पर आश्चर्य कि वह काला नंग-धंड़ग आदमी ,सुबह-सुबह फिर पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने खड़ा दिखा -- अपनी दुकान को ढ़ूँढता जो एक काले छोटे ढेर में बदल चुकी थी । वह सूरज के साथ-साथ बंगले के सामने उगा था । वह रातभर पूरे शहर में भटकता रहा था -- इस जगह को ढूँढ़ता । रात उसकी ऑंखों में बैचेन बैठी थी । सुबह उसने अपने को पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने खड़ा पाया था । वह आदमी अपनी दुकान के जले हुए ढ़ेर के सामने बैठ गया । अब भी कुछ पालिथीन और एकाध पुट्ठे के डिब्बे में -- उस दुकान के निशान, काँटा-तार के घेरे और सड़क किनारे की जमीन पर अब भी दिख रहे थे । आदमी उकड़ू बैठा था । काँटा-तार पर फँसी पालिथीन की एक छोटी थैली हवा के साथ उड़ी और उकड़ू बैठे आदमी के सिर को छूती निकल गयी । आदमी जले हुए ढेर को घूरता रहा - देर तक: धुनता रहा अपना सिर । फिर उठा और छाती पीट-पीट रोने लगा । रोने के साथ उसके मुँह से अजीब आवाज निकल रही थी, जैसे हिचकियों में उसकी साँस बार-बार फँस रही हो । जब रोत-रोते वह थक गया तो गाली बकने लगा -- गंदी-गंदी : धारा प्रवाह । उसका चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर था और पीठ उन छ: पुतलों की ओर जो शुरु से उसे देख रहे थे और उसके लिए दया और सहानुभूति से भरे हुए थे । उस आदमी की गालियाँ, मुँह से बाहर आते ही पालिथीन थैलियाँ और खाली डिब्बों में बदलकर, हवा के साथ उड़, पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के ऊपर गिर रही थीं । सिविल लाइन्स स्क्वैअर उसकी गालियों से भर रहा था । आते-जाते लोग ठिठकने लगे थे । बस उन छ: पुतलों को उस आदमी की गालियाँ नहीं छू रही थीं । गालियाँ जैसे ही पुतलों को छूती तुरन्त पानी में बदल जाती थीं । उस आदमी के आस-पास साइकिल सवारों और मजदूरों की अच्छी-खासी भीड़ अब इकट्ठा हो चुकी थी । ये वे लोग थे जो सुबह काम पर निकले थे और जिन्हें शाम को थककर वापस लौटना था । वह आदमी भीड़ को नहीं देख पा रहा था । बंद ऑंखों से वह पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले को देख रहा था : बक रहा था वह सिर्फ बंगले को गाली । अचानक सिपाही उस आदमी पर टूट पड़े । उनके हाथ-लात एक साथ चलने लगे । बहुत देर तक तीनों सिपाहियों के बूट उस आदमी की देह पर बजे । सिपाही बारी-बारी से उसके सिर के लंबे, गंदे और उलझे बालों को पकड़, उसकी देह को घुमा रहे थे । सिपाही उस आदमी से भी यादा गंदी गालियों में डूब रहे थे । सिपाही जब उसे पीटते-पीटते थक गए तो वह आदमी उठा -- लड़खड़ता । उसकी नाक से खून गिर रहा था -- टप-टप । पीठ कोहनियाँ, घुटने और चेहरा छिल गया था । वह काला आदमी अब लाल धब्बों से भरा था । वह अब भी सिपाहियों को नहीं, बंगले को घूर रहा था, जैसे बंगले ने आकर उसे पीटा हो और फिर वापस जाकर अपनी जगह खड़ा हो गया हो । एक सिपाही ने उसे धकेला, चल भाग यहाँ से । वह आदमी कुछ पीछे हटा ..... फिर कुछ कदम और .... फिर सिपाहियों ने उसकी पीठ देखी नंगी और काली पीठ जिससे खून छलक रहा था । पीठ उस आदमी के चेहरे की तरह दिख रही थी । सिपाहियों ने और वहाँ ख्रड़ी भीड़ ने -- किसी पीठ को चेहरा बनते पहली बार देखा था । सिपाही, काली पर लाल धब्बों भरी उस पीठ के घूरने की हद के भीतर थे : बेचैन वह आदमी अपने गायब होने के कुछ घंटों बाद -- जब सूर्य बस डूबने वाला था, फिर चौराहे पर प्रकट हो गया । इस बार वह सीमेंट के छ: पुतलों के बीच खड़ा था । पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला, रात्रि की चहल-पहल से पहले के मौन में डूबा हुआ था । गेट पर खड़े सिपाहियों ने उस आदमी को चौराहे के गोल घेरे पर चढ़ता देख लिया था, पर उन्होंने अपना ध्यान, जानबूझकर उस से हटा लिया । उनकी डयुटी उस आदमी के लिये ही गेट पर लगी थी । वह आदमी जब गेट के सामने आएगा तो सिपाही उसे देखेंगे । ये वहीं तीन सिपाही थे जो कुछ घंटे पहले, उस आदमी की पीठ को चेहरा बनते देख चुके थे । उस रात सीमेंट के छ: पुतलों की बीच खड़ा वह आदमी, लगातार पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर घूरता रहा -- गुस्से से । वह रात में हुई बंगले की चहल-पहल को घूरता रहा । वह अंधेरे में डूबे बंगले को घूरता रहा , जो चहलपहल के बाद थककर सोया - सा लग रहा था । उस आदमी के इस तरह बंगले को लगातार घूरने का असर, सीमेंट के उन छ: स्त्री-पुरूषों के पुतलों पर भी हुआ । सीमेंट के वे छ: पुतले पहली बार अपनी जगह से हिले । उनके जमीन पर घँसे पैर खुल गये । पहली बार पुतलों ने अपने देखने की दिशा बदली । वे उस आदमी के दर्द के छ: गवाह थे जो अब उनके बीच खड़ा था, बंगले को घूरता । सुबह हुई तो उस चौराहे पर, सीमेंट के छ: पुलतों की जगह, अब सीमेंट के सात पुतले थे और सातों पुतले पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर घूर रहे थे 
 .... आनंद हर्षुल 09425208074 anand_harshul@yahu.co.in

गुरुवार, 30 जून 2011

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आधा सच...: बाबा रे बाबा... ऐसा सत्याग्रह ?

आधा सच...: बाबा रे बाबा... ऐसा सत्याग्रह ?: "मित्रों , बाबा रामदेव ने देश को धोखा दिया। तीन जून को ही बाबा ने सरकार के साथ समझौता कर लिया था। रामदेव कल तक ड्रामा कर रहे थे कि 90 फी..."

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मंगलवार, 28 जून 2011

आनंदमठ

आनंदमठ - उपन्यास (बंकिम चंद्र)


सन १८८२ में प्रकाशित बंकिम चंद्र चटोपाध्याय द्वारा लिखित यह उपन्यास भारतीय इतिहास के उन दुर्लभ दस्तावेजोंमें से एक है जिन्होंने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया। इस उपन्यास को सन्यासी आन्दोलन और बंगाल अकाल की छाया में लिखा गया है।

आनन्द मठ बांग्ला भाषा का एक उपन्यास है जिसकी रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने १८८२ में की थी। इस कृति का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और स्वतन्त्रता के क्रान्तिकारियों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् इसी उपन्यास से लिया गया है। आनंदमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है।