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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

फ्रिज में होता है वायरस व बैक्टीरिया

आमतौर पर फ्रिज में रखे सामान को सुरक्षित मान लेते हैं लोग। लेकिन ग्लोबल हाईजीन काउंसिल के ताजा अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि फ्रिज में रखे सामान 70 फीसदी गंदे होते हैं। जबकि 95 फीसदी बाथरूम में बैक्टीरिया और वायरस का साम्राज्य रहता है। इन बैक्टीरिया व वायरस के कारण आम भारतीय पेट की खराबी, सांस की तकलीफ, चर्म रोग, फुड प्वाइजनिंग और एलर्जी का शिकार हो रहे हैं।
काउंसिल के भारत प्रतिनिधि डॉ.नरेंद्र सैनी ने संवाददाताओं से कहा कि हाथ की सफाई ठीक से न होने के कारण बैक्टीरिया व वायरस तेजी से फैलता है। जिन सामान को ऐसे हाथों से छुआ जाता है उसमें बैक्टीरिया व वायरस चला जाता है। कंप्यूटर की 22 फीसदी की बोर्ड में वायरस का साम्राज्य रहता है। जबकि टेलिफोन पर 45 फीसदी वायरस पाया गया है। किचन में काम करने वाली महिलाएं एक ही तौलिए का उपयोग कई कामों में करती है और प्रतिदिन साफ नहीं करती है। जिसके कारण 75 फीसदी वायरस जमा रहता है। हाथ में जमा वायरस छह से 48 घंटे तक जिंदा रहता है।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

दोपहर में महिलाओं से न लें पंगा नहीं तो...

पुरुषों के लिए एक बहुत ही जरूरी सलाह। वे दोपहर के वक्त महिलाओं के साथ किसी भी कीमत पर उलझने से बचें। नहीं तो इस समय महिलाओं के साथ बहसबाजी में उन्हें मुंह की खानी पड़ सकती है।

जी हां, लोगों के मिजाज पर किए गए एक सर्वे के नतीजे पर यकीन करें तो पुरुषों को इस सलाह पर जरूर अमल करना चाहिए। वरना, उन्हें महिलाओं से मात मिल सकती है। अध्ययन के नतीजों में यह भी कहा गया है कि यदि महिलाएं पुरुषों से कुछ कहना चाहती हैं तो उन्हें शाम के छह बजे तक इंतजार करना चाहिए, क्योंकि यही वह समय है जब पुरु ष अपने करीबी लोगों की मांगों को पूरी करते हैं।
ब्रिटेन में हुए इस अध्ययन में 1,000 पुरु षों और महिलाओं को शामिल किया गया था। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जब किसी महिला को तनख्वाह में इजाफे या प्रोन्नति की बात अपने बॉस से कहनी हो तो वह यह काम सुबह में न कर दोपहर एक बजे करे। इस वक्त उनकी मांगें पूरी होने की ज्यादा संभावना रहती है।
नतीजों के मुताबिक, दोपहर एक बजे के बाद का समय ऐसा होता है जब प्रबंधक अपने कर्मचारियों की मांग के प्रति बहुत उदार होता है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘महिलाएं यह जानकर काफी खुश होंगी कि मूड में होने वाले उतार-चढ़ाव से सिर्फ वहीं पीड़ित नहीं हैं, बल्कि ऐसा पुरुषों में भी देखा जाता है।’

पत्नी से प्रताड़ित डॉक्टर फांसी पर झूला

कानपुर। उन्नाव के सरकारी अस्पताल में तैनात एक डॉक्टर ने अपनी पत्नी से प्रताड़ित होकर फांसी लगा आत्म हत्या कर ली। बहन ने जब उसके कमरे में देखा तो वह पंखे से झूल रहा था। चीख सुनकर परिवार के सभी लोग वहां पुहंच गए।
डॉक्टर ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि वह अपनी पत्नी के व्यवहार से मानसिक रुप से परेशान होकर ऐसा कदम उठा रहा है। सूचना पाकर पुलिस मौके पर पहुंची और परिजनों से पूंछतांछ करने के बाद शव पोस्टमार्टम को भेज दिया है। घटना नजीराबाद थाना क्षेत्र की है। जानकारी के मुताबिक हर्ष नगर के मकान नंबर 42 108 में रहने वाले शंकर सिंह का पुत्र सिद्धार्थ (36) सरकारी डॉक्टर था और उन्नाव जिले के सिंकदरापुर सौरासी गांव के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र में मुख्य चिकित्सक के रुप में कार्यरत था।
उसकी पत्नी रेनू नगर के एसएनसेन इंटर कालेज में टीचर है और काफी समय से अपने मायके किदवई नगर में रह रही है। पिता शंकर सिंह का आरोप है कि उनकी बहू रेनू के किसी व्यक्ति से अवैध संबंध है। जिसका बेटा सिद्धार्थ हमेशा विरोध करता था। इसी विरोध के कारण विगत वर्ष अक्टूबर माह में रेनू ने सिद्धार्थ का रोड एक्सीडेंट भी करा दिया था। जिससे सिद्धार्थ के दोनों पैरों में फैक्चर होने के कारण सरिया डाली गयी थी।शंकर सिंह का यह भी आरोप है कि रेनू व साथ पढ़ाने वाली उसकी सहेली किरन दोनों उनके बेटे को फोन पर अक्सर अपाहिज कह कर धमकया करती थीं। जिस कारण सिद्धार्थ मानसिक रुप से बहुत परेशान रहता था। आज सुबह जब सिद्धार्थ काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो बेटी ने दरवाजा खोलकर अंदर देखा और फांसी से झूलता भाई का शव देखकर वह चीख पड़ी। सिद्धार्थ अपने तीन भाइयों में सबसे छोटा था। उसकी चार बहने भी है। सिद्धार्थ की मौत के बाद पूरे परिवार में कोहराम मच गया। वहीं पति की मौत की खबर मिलने के बाद भी रेनू अपने मायके से नहीं आयी।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

क्या है हाइवे हिंदुस्तान?

बीबीसी हिंदी की टीम 21 मार्च से भारत के विभिन्न हिस्सों में गोल्डन क्वाड्रिलेटरल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज पर यात्रा कर रही है. 21 दिनों की इस यात्रा का उद्देश्य यह जानने की कोशिश करना है कि इन तेज़ रफ़्तार सड़कों से क्या कुछ बदल रहा है.

स्वर्णिम चतुर्भुज के प्रभावों का आकलन करने के लिए बीबीसी हिंदी के संवाददाताओं की टीम देश के दो हिस्सों में यात्रा करेगी. एक हिस्सा उत्तरी भारत से पूर्वी भारत का होगा और दूसरा दक्षिण भारत से पश्चिमी भारत का.

बीबीसी की टीम प्रतिदिन औसतन 300 किलोमीटर की यात्रा करेगी.
सवाल

भारत के भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ ने जून 2010 से प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क निर्माण का लक्ष्य रखा है. यानी एक साल में सात हज़ार किलोमीटर सड़कें.

इस योजना का मुख्य लक्ष्य राज्य की राजधानियों को गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल यानी स्वर्णिम चतुर्भुज से जोड़ना है. स्वर्णिम चतुर्भुज देश को चार महानगरों, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई को तेज़ रफ़्तार यातायात के लिए चलने वाली सड़कों से जोड़ने वाली परियोजना है जो अब लगभग पूरी हो चुकी है.

भारत में सड़कों को जोड़ने की यह परियोजना बीसवीं सदी के 20 और 50 के दशक में अमरीका में सड़क निर्माण परियोजनाओं की याद दिलाती है. अमरीका में सड़कों ने न केवल विकास को बढ़ावा दिया बल्कि इससे व्यापार और कारोबार को बहुत बढ़ावा मिला.

यह जानने की सहज इच्छा होती है कि भारत में सड़कों के निर्माण से क्या कुछ बदल रहा है? सड़कों के किनारे की ज़मीनें महंगी हो रही हैं, नए निर्माण हो रहे हैं, नए शहर विकसित हो रहे हैं, ढाबों का चलन बढ़ा है, लेकिन इसने किसानों को खेती से दूर भी किया है, स़डकों के रास्ते एचआईवी-एड्स जैसी घातक बीमारी घरों तक पहुँच रही हैं.

कई और सवाल भी हैं. मसलन क्या इसकी वजह से शहरीकरण बढ़ रहा है? क्या इससे रोज़गार के अवसर बढ़े हैं? और क्या यह व्यापार-कोरोबार की बढ़ोत्तरी में कोई भूमिका निभा रहा है?
यात्रा
राजपथ, दिल्ली

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने पिछले दस सालों में सड़कों पर बहुत काम किया है

इन सब सवालों के जवाब तलाश करने के लिए बीबीसी संवाददाताओं की एक टीम स्वर्णिम चतुर्भुज पर तीन हफ़्ते यात्रा कर रही है.

वे यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसने लोगों के जीवन पर कैसा असर डाला है और इससे समाज किस तरह बदल रहा है? क्या इससे सचमुच एक नए भारत का निर्माण हो रहा है, जैसा कि इस परियोजना को लेकर सरकारों का दावा रहा है?

संवाददाताओं की यह टीम अपने अनुभवों को विशेष रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए श्रोताओं से साझा करेगी, तस्वीरों और वीडियो के ज़रिए बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के पाठकों से रूबरू होगी. यह टीम अपनी यात्रा के दौरान बीबीसी के श्रोताओं और पाठकों से उनके अनुभव भी साझा करेगी.
यात्रा का मार्ग

पहले चरण की यात्रा 21 मार्च को वाराणसी से शुरु होगी और 30 मार्च को कोलकाता में ख़त्म होगी. उत्तर प्रदेश से शुरु होकर यह यात्रा बिहार और झारखंड से होकर पश्चिम बंगाल में ख़त्म होगी.

चकाचौंध के पीछे का अंधेरा

अध्यादेश लागू, आत्महत्याएँ जारी

ग्रामीण गरीबों को छोटे ऋण देने वाली संस्थाओं या माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों की अनियमितताओं से निपटने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार का अध्यादेश लागू हो गया है.
इसके अंतर्गत ऋण की वसूली के लिए किसी को डराना-धमकाना एक अपराध बन गया है. इसके लिए तीन वर्ष क़ैद की सज़ा हो सकती है और एक लाख रूपए जुर्माना हो सकता है.

इस अध्यादेश पर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने शुक्रवार को हस्ताक्षर किए और राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री वी वसंता कुमार ने कहा कि इस पर तुरंत अमल शुरू हो जाएगा.
इस बीच राज्य में माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से ऋण लेकर परेशानियाँ झेलने वाले लोगों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है.
गुरुवार और शुक्रवार दो और व्यक्तियों ने डराने-धमकाने से तंग आकर अपनी जान ले ली.

आत्महत्याएँ जारी

एक घटना शुक्रवार को वारंगल ज़िले के वेंकटादरी गाँव में हुई जहाँ रमेश नाम के एक खेत मज़दूर ने आत्महत्या कर ली. उस के परिवार वालों का आरोप है कि उसे एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के लोग ऋण की वापसी के लिए परेशान कर रहे थे.
ऐसी ही एक घटना गुरुवार कड़प्पा ज़िले में हुई जहाँ वेल्लम्वारिपल्ली गाँव के एक किसान रमन्ना रेड्डी ने कीटनाशक दवा पीकर आत्महत्या कर ली. उसने दो अलग अलग कंपनियों से तीस हज़ार रुपये का ऋण लिया था लेकिन उसे वापस अदा नहीं कर पा रहा था.

अनंतपुर ज़िले में भी एक कंपनी के कर्मचारियों ने उन लोगों के घरों में तोड़फोड़ की जो ऋण वापस नहीं कर पा रहे थे.
ऐसी ही एक कार्रवाई के जवाब में खम्मम जिले में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनी के कार्यालय पर धावा बोल दिया और वहां तोड़फोड़ की.

नए नियम


ग्रामीण विकास मंत्री वसंता कुमार ने कहा है कि इस अध्यादेश के पारित होने के साथ ही अब केवल उन्हीं माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को राज्य में काम करने की अनुमति होगी जो अपना पंजीकरण करवाएँगीं.
इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है
वी वसंता कुमार, ग्रामीण विकास मंत्री
इसके लिए उन्हें तीस दिन का समय दिया गया है.
अध्यादेश के अंतर्गत इन कंपनियों को अपने कार्यालय में एक बोर्ड पर यह साफ़ लिखना होगा की वे किस ब्याज़ दर पर ऋण दे रहे हैं और ऋण लेने वाले पर कितना बोझ पड़ने वाला है.

इन कंपनियों पर आरोप है कि वो ऋण लेने वाले ग्रामीण ग़रीबों और महिलाओं को स्पष्ट रूप से नहीं बताते कि कुल मिलाकर उन्हें कितना प्रतिशत ब्याज़ देना होगा.
आरोप है कि कई कंपनियाँ तो 30 से 50 प्रतिशत तक ब्याज़ लेती हैं.

सरकार ने अपनी ओर से इन संस्थानों के लिए ब्याज़ दरों की कोई सीमा तय नहीं की है. मंत्री वसंता कुमार का कहना था कि यह राज्य सरकार के दायरे से बाहर है.
वसंता कुमार ने बताया, "इस अध्यादेश के अलावा कर्ज़ के बोझ तले दबे लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की मदद के लिए सरकार एक नई योजना बना रही है."
इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कहा जाएगा कि वो महिलाओं के समूहों को ऋण दें ताकि वो माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों का ऋण वापस लौटा सकें.
इन बैंकों की ब्याज़ दर माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कम होंगीं.
अगर बैंक यह सुझाव स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उन्हें महिलाओं के समूहों को 9600 करोड़ रुपए के ऋण देने होंगे क्योंकि माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों को इन ग्रामीणों से इतना ही ऋण वसूल करना है.
आंध्र प्रदेश में एक करोड़ से भी ज़्यादा महिलाएँ स्व-सहायता समूहों की सदस्य हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद पी मधु का कहना है कि इन समूहों को बैंकों से कर्ज़ न मिलने की वजह से ही वे माइक्रो फ़ाइनैंस कंपनियों से कर्ज़ लेने को मज़बूर हुए हैं.
उनका कहना है कि इन समूहों को 12 से 15 हज़ार करोड़ रुपए मिलने चाहिए जबकि सरकार सिर्फ़ 11 सौ करोड़ रुपए उपलब्ध करवा रही है

खत लिख दे सावरियां के नाम

खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू वो जान जायेंगे पहचान जायेंगे कोई तीन दशक पूर्व बंबईया फिल्म का यह गीत उन लोगों को बहुत भाता था जो दूसराेंं के लिये खत लिखने का काम करते थे और इसके बदले उन्हे चन्द पैसे मिल जाया करते थे1लेकिन अब न तो खत लिखने व पढने का काम मिलता है और न ही यह गाना बजता है1

पुराने दिनों की याद करते हुए एक खत लिखने वाले बुजुर्ग 70 वर्षीय रामाश्रय शर्मा ने बताया कि वे कक्षा चौथी में जब पढते थे तो पोस्टकार्ड पढने और फिर जवाबी पोस्टकार्ड लिखने के एवज में उन्हे एक आना मिला करता था 1 महीने में 10 से 12 आने की कमाई पोस्टकार्ड लिखने और पढने से हो जाया करती थी 1 बचपन में जेब खर्च के लिये यह रकम काफी थी1


आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त श्री शर्मा ने बताया कि नौकरी न मिलने तक वे खत पढने और लिखने का काम करते रहे 1इससे जहां गांव में उनकी अच्छी खासी पूछपरख होती थी और कमाई भी हो जाया करती थी ् लेकिन जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार प्रचार होता गया लोगों ने खुद ही लिखना पढना शुरू कर दिया1 वर्ष 1968 तक वे इस काम में लगे रहे और उनकी देखा देखी गांव के और भी पढे लिखे लडकों ने खत लिखने और पढने का काम शुरू कर दिया था 1यहां तक कि वे लोग आसपास के गांवों में भी जाकर लोेगों की चिट्ठियां पढकर सुनाने का काम कर दिया करते थे 1

श्री शर्मा ने बताया कि कुछ डाक बाबू अर्थात डाकिया भी खत पढने और लिखने का काम किया करते थे 1सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि खत पढने और लिखने वाला व्यक्ति खत की बात सार्वजनिक नहीं करता था और इस तरह वह उस व्यक्ति का विश्वास पात्र हो जाता था जिसके लिये वह खत लिखने का काम करता था1 अब न तो लोग पोस्टकार्डों का इस्तेमाल करते हैं और न ही आज के दौर में लोग किसी से अपनी चिट्ठी पढवाते हैं1 शायद इसलिए अब खत लिख दे सावरियां के नाम बाबू जैसा गाना भी नहीं बजता है1

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

चार बहनें एक जैसी

ब्रिटेन की ये एक जैसी चार बहनें अपनी टीचर्स के लिए सिरदर्द बन गई हैं। बैडफोर्ड शायर के बिगलवेड के रहने वाले जोंस और जूली चाल्र्स एक साथ जन्मी इन चार बहनों के माता-पिता हैं। सितंबर 2005 में जन्मी इन चार जुड़वां बहनों की शक्ल-सूरत बिलकुल एक जैसी है। अब ये स्कूल जाने लगी हैं और इनकी टीचर्स के लिए चारों के बीच अंतर करना टेढ़ी-खीर साबित हो रहा है।
पांच साल की हो चुकी एली, जिऑर्जिना, जेसिका और हॉली ब्रिटेन में एकमात्र इस तरह की जीवित मिसाल हैं। दुनिया में क्वाड्रीप्लेट्स पैदा होने वाले बच्चों का यह 27वां इत्तेफाक है।
इन बच्चों की 42 वर्षीय मां जूली बताती हैं कि इन बच्चों की बचने की उम्मीद कम थी। डॉक्टर उन्हें बाकी बच्चों का बचाने के लिए एक का गर्भपात करने की सलाह दे रहे थे। फिर भी पति-पत्नी ने हिम्मत नहीं हारी और इसका नतीजा भी उनके पक्ष में गया।
इसी सप्ताह चारों ने स्कूल जाना शुरू किया है। चारों की पहचान करने के लिए टीचर्स ने उनके नाम का पहला अक्षर उनकी कॉलर पर लिख दिया है। चारों एक साथ यूनिफॉर्म पहनकर जाती हैं तो उन्हें पहचानना और मुश्किल हो जाता है। उन्हें देखने के लिए लोग खासतौर पर वहां आते हैं। जूली कहती हैं कि इनके जन्म के बाद से हमारी जिंदगी बदल गई है। इनकी परवरिश ही हमारे लिए सबकुछ है।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

ट्रैफ़िक नियम तोड़ने पर फ़िल्म देखने की सज़ा

अगर ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने पर आपको जुर्माना भरने के बजाय दो घंटे फ़िल्म देखने की सज़ा मिले तो कैसा होगा? जिन्होंने अब तक ये सज़ा भुगती है, उन्होंने कम से कम ट्रैफ़िक के नियम तोड़ कर भविष्य  में ऐसी फ़िल्म देखने से तो तौबा कर ली है.
असल में ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने वालों से परेशान छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर  के यातायात विभाग ने ऐसे लोगों से निपटने का एक अनूठा तरीका अपनाया है. राजधानी रायपुर में अब ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने वालों को पूरे दो घंटे तक थाने में बैठकर यातायात के नियमों पर आधारित फ़िल्म देखनी पड़ रही है.
यातायात पुलिस अपने इस फ़िल्म अभियान से खुश है. आम जनता भी मान रही है कि ये अभियान अगर ईमानदारी से चले तो ट्रैफ़िक नियमों की अनदेखी करने वाले लोग ज़रुर सुधर जायेंगे. लगभग दस साल पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी बने रायपुर में ट्रैफ़िक नियमों के पालन करने को लेकर आम जनता में जागरुकता तो बढ़ी है लेकिन नियम तोड़ने वाले लोगों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई है.
साल 2008 में यातायात नियमों का उल्लंघन करने वाले 54 हज़ार से अधिक लोगों के खिलाफ कार्रवाई की गई और उनसे जुर्माना वसूला गया. यह आँकड़ा 2009 में भी कम नहीं हुआ. साल 2010 में तो केवल जुलाई तक लगभग 55 हज़ार लोगों के खिलाफ यातायात के नियम तोड़ने के आरोप में कार्रवाई की जा चुकी थी.
ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों के खिलाफ जब चालान और जुर्माने से भी बात नहीं बनी तो यातायात पुलिस ने शहर के कुछ बुद्धिजीवियों और मनोवैज्ञानिकों से बात की. बैठकों के दौर चले और फिर शुरु हुआ ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों को थाने में जबरदस्ती दो घंटे तक बैठाकर यातायात पर आधारित फ़िल्म दिखाने का यह अनूठा प्रयोग.
इसके लिए दिल्ली समेत अलग-अलग राज्यों से यातायात नियमों को लेकर बनाई गई फ़िल्में मंगाई गईं. रायपुर के ट्रैफ़िक डीएसपी बलराम हिरवानी बताते हैं, "इसकी प्रेरणा हमें आंध्र प्रदेश  से मिली, जहाँ इससे मिलती-जुलती पहल की गई थी. रायपुर में हमें इसके सकारात्मक परिणाम मिल रहे हैं और पहले ही दिन कोई 150 लोगों को यह फ़िल्म दिखाई गई."
उनका मानना है कि अगर कोई व्यक्ति किसी जरुरी काम से जा रहा हो और ट्रैफ़िक के नियम तोड़ने की सज़ा के तौर पर उसे पूरे दो घंटे थाने में बैठा कर फ़िल्म दिखाई जाये तो कम से कम अपना समय बचाने के लिये भविष्य में वह ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने से बाज आएगा.
मैनेजमेंट के छात्र  पंकज कुमार हड़बड़ी में थे और सिग्नल की परवाह किये बिना जब उन्होंने ग़लत तरीके से अपनी बाईक आगे बढ़ा ली तो उन्हें यातायात विभाग के सिपाही ने धर दबोचा.
दो घंटे की फ़िल्म देख कर निकले पंकज कहते हैं- " आधे मिनट का समय बचाने के चक्कर में मेरे दो घंटे बर्बाद हो गये. घर के ढेरों काम धरे रह गये. यह सज़ा किसी भी चालान, जुर्माने और सज़ा से भारी है और मुझे तो कम से कम पूरी ज़िंदगी याद रहेगी."
यातायात पुलिस से पकड़े जाने पर अधिकाँश लोग दो घंटे तक फ़िल्म देखने के बजाय जुर्माना देना बेहतर समझते हैं लेकिन यातायात पुलिस इस बात के लिए तैयार नहीं होती. फ़िल्म देखने वाले कक्ष में बैठे पारस पाठक का मानना है कि अगर इस योजना को ईमानदारी से लागू किया जाये तो लोगों में इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा लेकिन पारस मानते हैं कि इस तरह की योजनाएँ लंबे समय तक शायद ही चल पाएँ.
असल में यातायात पुलिस में कर्मचारियों की संख्या कम होने के कारण यह योजना रायपुर के कुछ चुनिंदा इलाकों में ही लागू हो पाई है. ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वालों को फ़िल्म प्रदर्शन करने वाले स्थल तक हर बार लाने के लिये भी यातायात पुलिस के पास कोई अमला नहीं है. ऐसे में इस अनूठी सज़ा के लंबे समय तक जारी रहने पर शक वाजिब है.
फिलहाल योजना बनाई जा रही है कि रायपुर शहर की यातायात व्यवस्था को केंद्र में रखकर एक फ़िल्म बनाई जाये और सज़ा के बतौर दिखाने के अलावा स्कूल-कॉलेज और दूसरे माध्यमों से इसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जाये.