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गुरुवार, 3 मार्च 2011

जहां ना पहुंचा रवि

इस शेर को एकाधिक परिपेक्ष्य में सफ़लता से प्रयोग में लाते देखा है लोगों को.
१. दुनिया बनाने वाले के छुपे राज़ की पर्तों पर [वैज्ञानिक/फ़लसफ़ाई नज़र की दाद में]
२. शम्मा के जलने और परवाने की अनुपलब्धता के परिपेक्ष्य में [हुस्न की समझ और उसके एप्रिसिएशन करने वाले की शान में]
३. जहां ना पहुंचा रवि वहां ठस्स गए कवि वाले केस में... आदी

व्यक्तिगत रूप से मुझे पहले केस पर ही यह माकूल फ़िट लगता है और यह चर्चा भी उसी नतीजे पर है जान कर संतोष हुआ. प्रमोद जी ने यहाँ आगे-पीछे के शेर देकर मामला बड़ा सुलभ कर दिया। इन पर थोड़ी देर सोचने के बाद और कुछ देर तक मित्र फ़रीद ख़ान से विमर्श करने के बाद मैं इस शेर के ऐसे अर्थ के क़रीब पहुँचा हूँ जिससे एक नई रौशनी मिलती है। सबसे पहले तो मेरे विचार से यहाँ नरगिस फूल के अर्थ में है ही नहीं। ईरान कल्चर हाउस दारा प्रकाशित शब्दकोष के अनुसार नरगिस का एक अर्थ प्रियतमा की आँख भी होता है। उसी परम्परा से 'ऐ नरगिसे मस्ताना' जैसे जुमले बनते हैं। नज़्म में लगातार आँख और दृष्टि की बात हो रही है। जहाँबीनी (दुनिया को देखना) चश्मे दिल फिर नज़र.. उस्के आगे फिर दीदावर (देखने वाला)।
 
तो अर्थ कुछ यूँ बनेगा: संसार पर शासन करने से कठिन है संसार को समझना।  जिगर में (कठिनाई झेलने का) ताब रखकर करके ही हृदय में एक दृष्टि पैदा होती है। नहीं तो आँख होते हुए भी बेनूर (यानी अंधी) बनी रहती है। बड़ी मुश्किल से दुनिया को समझने वाला पैदा होता है। यह बात इक़बाल के मर्दे मोमिन के विचार से मेल खाती है।