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बुधवार, 29 सितंबर 2010

7 स्थल जहाँ विचारों को मिलती है "स्वतंत्रता"

india-flag
स्वतंत्रता के 60 से अधिक वर्ष गुजर जाने के बाद आम आदमी के लिए अपनी बात कहने के स्वतंत्र माध्यम कितने है? लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले कथित जन जागरण के माध्यमों जैसे कि अखबारों और टीवी समाचार चैनलों को अब लोगों की आवाज नहीं कहा जा सकता है.

तो क्या आज "वाणी स्वतंत्रता" जैसी बातें मात्र "किताबी" रह गई हैं? सौभाग्य से ऐसा नहीं है. आज भी कम से कम 7 ऐसे माध्यम अथवा जगहें उपलब्ध हैं जहाँ पर आप खुलकर अपने मन की बात रखते हैं. बस इस और कभी हमारा ध्यान नहीं जाता!

ये वे स्थान है जहाँ एक भारतवासी मुखर हो कर अपनी बात रखता है और बहस करता है. सोच कर देखिए -

कटिंग चाय की केटली
teastall
आम से लेकर खास आदमी तक इस पेय को चाव से पीता है - इसे चाय कहते हैं. और एक कटिंग चाय की प्याली उपलब्ध करवाती है सडक के किनारे लगी केटली. केटली जहाँ मात्र चाय ही नहीं पी जाती है बल्कि क्रिकेट से लेकर विदेशनीति तक के विषयों पर खुलकर बहस होती है और मुद्दों की चीरफाड़ आम बात है.


ब्लॉग
blogging
सम्पादकों की कैंची से मुक्त और प्रकाशक की पसंद से स्वतंत्र है यह माध्यम. यह आपका अपना अखबार भी है और डायरी भी. बस मन की बात लिखते जाइए और अब भारतीय अपनी बात बहुत ही मुखरता से रख भी रहे है. नहीं मात्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हर भाषा में.


ट्विटर
twitter
और ब्लॉग का संक्षिप्त स्वरूप है ट्विटर रूपी माइक्रोब्लॉग. और ब्लॉग से कहीं अधिक शक्तिशाली भी. शक्तिशाली इसलिए क्योंकि आपकी कही बात तुरंत आपके पाठक तक पहुँचती है चाहे वह अपने पीसी के पास हो या ना होगा. क्या नेता क्या अभिनेता आज हर कोई इस माध्यम को अपना रहा है. भारतीयों का ट्विटर पर चहकना जारी है. परंतु फिर भी आज ट्विटर का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूचि में हम 8वें स्थान पर हैं.


दीवारें
wall-message
स्वीकार करते हैं कि यह एक गलत तरीका है, मगर अभिव्यक्ति का माध्यम तो फिर भी है ही. दीवारें ना-ना प्रकार के विज्ञापनों से ही नहीं, संदेशों से भी रंगी जा रही है और शायद यह सिलसिला जारी रहेगा.


कार्टून
cartoon
प्रिंट मीडिया पर भले ही पक्षपात व खबरें बेचने का आरोप लगता हो या अखबारों व टीवी चैनलों की विश्वसनियता बुरी तरह से गिरी हो परंतु कार्टून अभी भी अपनी धार बनाए हुए है अतः आम भारतीय खूद को उनसे जोड़ पा रहा है.


एसएमएस
sms
एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल तक मामूली कीमत चुका कर प्रेषित होने वाले लघु संदेश सुचनाएं ही नहीं पहुँचा रहे है, वे विचारों को फैलाने का काम भी कर रहे हैं. यकीन ना हो तो अपना मोबाइल खंगाल लें. आपके किसी मित्र ने "अफज़ल" या "राम सेना" से संबंधित कोई संदेश अग्रेषित किया होगा.


सोश्यल नेटवर्किंग साइटें
social-networking
फेसबुक, ओर्कुट, मायस्पेस, यूट्यूब... सूचि लम्बी है. सोश्यल नेटवर्किंग साइटें ना केवल मित्रों को और दूर बैठे रिश्तेदारों को आपस में जोड़ती है बल्कि ये साइटॆं विचारों को फैलाने और बहस करने का माध्यम भी बनती जा रही है. आज यहाँ रोज तस्वीरें, वीडियो, कडियाँ आदि पोस्ट की जाती है. लोग बहस करते हैं. लडाईयाँ भी होती है पर विचारों का रैला चलता रहता है.

आदमी को खिलाया कुत्ते का खाना

अफवाह फैलाने वाले शख्स को महिला ने कुत्ते का खाना खिलाया कुर्सी से बांध कर एक व्यक्ति को जबरन कुत्ते का आहार खिलाने और उस पर केरोसीन छिड़कने वाली एक युवती को यहां की एक अदालत सजा सुनाने वाली है। इस युवती को लगता था कि यह व्यक्ति उसके खिलाफ अफवाहें फैला रहा है।
बहरहाल, इस युवती को आस्ट्रेलिया की एक अदालत इस मामले में सजा सुनाने वाली है। जार्जिया बकनेल (18) पर पीड़ित व्यक्ति को चाकू दिखा कर भयभीत करने, जमीन पर लिटाने तथा केरोसीन छिड़कने के आरोप लगाये गये हैं। एएपी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ’’युवती ने उसे एक कुर्सी से बांध दिया और उसे चम्मच से कुत्ते का आहार खिलाया। ’’इसे कुत्ते खाते हैं... खाआ॓ इसे।’’
 पीड़ित व्यक्ति के सिर के पिछले हिस्से पर उसने चाकू  की मूठ से प्रहार भी किया। जार्जिया ने पिछले साल 19 नवंबर को तड़के लगभग दो बजे अपने कुछ दोस्तों के साथ इस व्यक्ति के घर जा कर उसके साथ यह अमानवीय सलूक किया था।

भारत में रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण हत्या

पुरूषों के मुकाबले भारत में लगातार महिलाओं की कम होती संख्या के कारण पैदा हो रही कई किस्म की नृशंस सामाजिक विकृतियों के बीच भारत सरकार ने स्वीकार किया है कि 2001-05 के दौरान रोजाना करीब 1800-1900 कन्या भ्रूण की हत्याएं हुई हैं।
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसआ॓) की एक रपट में कहा गया है कि साल 2001-05 के बीच करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है अर्थात इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है।
हालांकि महिलाओं से जुड़ी समस्या पर काम कर रही संस्था सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी का कहना है कि यह आंकड़ा भयानक है लेकिन वास्तविक तस्वीर इससे भी अधिक डरावनी हो सकती है। गैरकानूनी और छुपे तौर पर और कुछ इलाकों में तो जिस तादाद में कन्या  भ्रूण  की हत्या हो रही है उसके अनुपात में यह आंकड़ा कम लगता है। हालांकि आधिकारिक आंकड़े इतने भयावह हैं तो इससे इसका अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है।
इधर सरकारी रपट में कहा गया है कि 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात सिर्फ कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि इसकी वजह कन्या मृत्यु दर का अधिक होना भी है। बच्चियों की देखभाल ठीक तरीके से न होने के कारण उनकी मृत्यु दर अधिक है। इसलिए जन्म के समय मृत्यु दर एक महत्वपूर्ण संकेतक है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।
रपट के मुताबिक 1981 में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1981 में 962 था जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया है। इसका श्रेय मुख्य तौर पर देश के कुछ भागों में हुई कन्या भ्रूणकी हत्या को जाता है।उल्लेखनीय 1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम :प्री नेटल डायग्नास्टिक एक्ट, 1995 के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है जबकि इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है।
 भारत सरकार ने 2011-12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढ़ा कर 950 करने लक्ष्य रखा है। देश के 328 जिलों में बच्चों का लिंग अनुपात 950 से कम है।
सीएसआ॓ के अध्ययन के मुताबिक सबसे बड़ी चुनौती है नियमित रूप से लिंग अनुपात पर नजर रखना जो एक उत्कृष्ट जन्म पंजीकरण प्रणाली के जरिए ही संभव है।

स्मार्ट फोन के शिष्टाचार, कैसे करें मोबाइल का उपयोग

अब जबकि लगभग हर हाथ में एक मोबाइल फोन जरूर होता है, इसके उपयोग के शिष्टाचार को लेकर भी किताबें और लेख लिखे जा रहे हैं. यहाँ तक कि शिष्टाचार सिखाने वाले इंस्टीट्यूट भी अब मोबाइल शिष्टाचार को अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं. स्मार्ट फोन आपकी अपनी ऐसी दुनिया होती है जो आपको लगातार अपने मित्रों और बाकी दुनिया से जोड़े रखती है. परंतु हमें यह नही भूलना चाहिए दुनिया सिर्फ उस छोटे से डिवाइज़ तक ही सीमित नहीं है. एमिली पोस्ट इंस्टीट्यूट की एना पोस्ट के अनुसार - यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने मोबाइल फोन को किस तरह से लेते हैं. उसमें स्विच ऑफ का बटन है और वाइब्रेशन का भी, परंतु उसका उपयोग कब और कैसे करना है यह महत्वपूर्ण है. वैसे तो मोबाइल फोन के शिष्टाचार अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु कुछ आम शिष्टाचार इस प्रकार से हैं.
सार्वजनिक स्थानों, अस्पतालों में मोबाइल वाईब्रेशन पर रखें:
सार्वजनिक स्थानों तथा अस्पताल जैसी जगह पर अपने मोबाइल फोन को साइलेंट या वाईब्रेशन मोड पर ही रखें. सोचिए आप अस्पताल के आईसीयू वार्ड में बैठे हों और आपके मोबाइल पर रिंगटोन के लिए चुनी गई कोई गाने की धुन बजे तो बाकी के लोगों को कैसा लगेगा.
आवाज़ धीमी रखें:
कुछ लोगों को आदत होती है कि वे एसटीडी कॉल को प्राप्त करते ही जोर जोर से बोलने लगते हैं, हालाँकि उसकी आवश्यकता नहीं है. लोकल कॉल के दरम्यान भी अपनी आवाज को धीमी ही रखें. विशेष रूप से यदि आप सार्वजनिक स्थानों पर हों तो अपनी आवाज उतनी ही रखें जितनी मात्र आपके कानों तक जाए. यदि आपको लगे की सामने वाले व्यक्ति को आवाज सुनाई नहीं दे रही तो फोन के आसपास अपने हाथों से घेरा बना लें.
किसी से बात करते समय मोबाइल का इस्तेमाल ना करें:
जब आप किसी अन्य व्यक्ति के साथ बातचीत या चर्चा कर रहें हों तो अपने मोबाइल का इस्तेमाल टाल दें. फोन को स्विच ऑफ कर दें या फिर साइलेंट. यदि कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कॉल आ जाए तो कॉल उठाने के लिए थोड़ी दूर चले जाएँ और इसके लिए सामने बैठे व्यक्ति से क्षमा मांगे. कॉल को जल्द से जल्द खत्म कर वापस आएँ. कम महत्वपूर्ण कॉल को अनदेखा कर सकते हैं या फिर पहले से तैयार एसएमएस टेम्पलेट का उपयोग कर ऐसे कॉल करने वाले लोगों को संदेश भेज सकते है कि आप व्यस्त हैं, बाद में कॉल करेंगे
धार्मिक स्थानों पर मोबाइल बंद कर दें:
धार्मिक स्थानॉं जैसे कि मंदिर में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो आपकी मनपसंद रिंगटोन को सुनने में रूचि रखता होगा. इसलिए बेहतर होगा आप मोबाइल फोन को साइलेंट रखें. वाईब्रेशन मोड से भी किसी को परेशानी हो सकती है.
अन्य लोगों के बीच अपनी रिंगटोन ना बजाएँ:
यदि आप अपने मित्रों के इतर कुछ नए लोगों से मिल रहे हैं तो अपने मोबाइल की रिंगटोन को बदल कर कोई सामान्य धुन रख लें. यकीन मानिए लोगों किसी दूसरे के मोबाइल पर बजी गानों पर आधारित रिंगटोन सुनना अच्छा नहीं लगता.
विद्यालयों में मोबाइल फोन बंद रखें:
यदि आप विद्यार्थी हैं तो अपने स्कूल-कॉलेज में क्लास के सत्र के दौरान मोबाइल स्विच ऑफ कर दें. अधिकतर स्कूलों और कॉलेजों में पहले से यह नियम लागू है, यदि आपके कॉलेज में यह नियम ना भी लागू हो तो भी आप इसे अमल में ला सकते हैं. मोबाइल स्विच ऑफ होगा तो आपके मन में कोई गेम खेलने का विचार भी नहीं आएगा और आप पढाई में ध्यान लगा पाएंगे.

कंज्यूमर को बांधने का नया फंडा

अकसर ये देखा जा रहा है कि कंज्यूमर उन विज्ञापनों को एवॉइड करता है, जिनको वो देखना नहीं चाहते हैं। टेलीविजन पर तो अक्सर वे अपना चैनल बदल देते हैं। कॉर्पोरेट वर्ल्ड के सामने ये चुनौती है कि कैसे वे कंज्यूमर को अपने विज्ञापन के प्रति बांध के रखें। वे विज्ञापनों को बेहद इन्टरेस्टिंग और इनोवेटिव बनाने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु इसकी भी एक सीमा है।
कुल मिलाकर हुआ ये कि टेलीविजन पर विज्ञापन का खर्च तो बेतहाशा बढ़ गया परन्तु सेल्स पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। इन विज्ञापनों के प्रति उपभोक्ता का विश्वास भी कम होने लगा है। कॉर्पोरेट वर्ल्ड के सामने चुनौती यह है कि किसके माध्यम सेे अपना संदेश कंज्यूमर को बतलाएं ताकि न केवल ग्राहक को उन संदेशों पर विश्वास हो और साथ ही वह प्रॉडक्ट खरीदने के लिए भी प्रेरित हों। एक मैनेजमेंट अध्ययन में यह पाया गया है कि कंज्यूमर के प्रॉडक्ट खरीदने के निर्णय में उसके दोस्त, सहकर्मी, पड़ोसी आदि बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे बातों ही बातों में ग्राहक का दिमाग ऎसा घुमा देते हैं कि कॉर्पोरेट वर्ल्ड के करोड़ो रूपए खर्च करके बनाए गए विज्ञापन बेअसर साबित होते हैं। कॉर्पोरेट वल्र्ड के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि इस तरह के वार्तालाप को नियंत्रण में कैसे लिया जाए। मैनेजमेंट एक्सपर्ट्स इस तरह के वार्तालाप को "वर्ड आफ माउथ पब्लिसिटी" की संज्ञा देते हैं। कई दिग्गज कम्पनियों ने इसको नियंत्रण में करने के विशाल प्रयास किए हैं। उदाहरण के लिए कॉर्पोरेट वर्ल्ड की बहुराष्ट्रीय कम्पनी "प्रौक्टर एण्ड गैम्बल" ने लगभग दो लाख टीनेजर्स और करीब पांच लाख मदर्स को अपना वॉलिन्टियर बनाया है, जो बातों ही बातों में उसके प्रॉडक्ट्स की तारीफ करेंगी और ग्राहक को अप्रत्यक्ष रूप से फैमिली या दोस्ताना वातावरण में प्रॉडक्ट्स की ओर प्रेरित करेंगी।
इसी तरह से नैस्ले, फिलिप्स जैसी कम्पनियों के पास ढाई लाख से अधिक वॉलिन्टियर्स हैं, जो ग्राहकों को बातों ही बातों में अप्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के प्रॉडक्ट्स की तरफ प्रेरित करते हैं। ऎसा करने से उन्हें रिवार्ड प्वाइंट्स मिलते हैं, जिनको कई प्रकार के बेनेफिट्स में एनकैश कराया जा सकता है। इससे कम्पनियों को बेहद फायदा पहुंच रहा है। तो याद रहे यदि आपका कोई दोस्त किसी प्रॉडक्ट की बेहद तारीफ करे, तो हो सकता है कि वह किसी कम्पनी का वॉलिन्टियर हो और ऎसा करके दो पैसे कमाने की सोच रहा हो।

डिग्री से ज्यादा नौकरी को अहमियत

किसी समय बेहतर नौकरी पाने के लिए डिग्री का होना बहुत जरूरी माना जाता था, लेकिन इन दिनों यह चलन बदल रहा है। अब डिग्री रहित या स्कूल छोड़ चुके छात्रों को भी नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। स्कूल छोड़ चुके छात्रों का भी रूझान यूनिवर्सिटी में शिक्षा लेने की बजाय किसी कंपनी में नौकरी या अप्रेंटिसशिप (प्रशिक्षण) की ओर बढ़ा है। इस संबंध में "प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स" नामक कंपनी के आंकड़े जाहिर करते हैं कि उनकी ओर से स्कूल-लीवर्स के लिए एंट्री-स्कीम के तहत मिले आवेदनों में भारी उछाल आया है और पिछले दो सालों में यह संख्या बढ़कर 800 तक पहुंच गई है। दूसरी ओर "सिटी फंड मैनेजर्स" ने इस वर्ष से स्कूल लीवर्स को नौकरी देने की शुरूआत कर दी है।

गौरतलब है कि "नेटवर्क रेल" की ओर से 200 से ज्यादा अप्रेंटिसशिप प्लेसेस में प्रशिक्षण के लिए 4 हजार छात्रों की ओर से एप्लिकेशंस भेजी गई हैं। वोकेशनल कोर्सेस से संबंधित कार्य करने वाली कंपनी "सिटी एंड गिल्ड्स" के अनुसार इस वर्ष पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक छात्रों में यह रूझान पाया गया है। इन आंकड़ों का यह अर्थ नहीं है कि छात्रों में स्कूल के बाद डिग्री लेने की जरूरत में गिरावट आ गई है, लेकिन स्कूली शिक्षा के बाद सीधे ही नौकरी करने का चलन बढ़ रहा है। नेटवर्क रेल की प्रवक्ता का कहना है कि पहले महज वे ही छात्र ऎसा करते थे, जो यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने में समर्थ नहीं थे, लेकिन अब सक्षम छात्र भी यूनिवर्सिटी की डिग्री के बजाय नौकरी के व्यावहारिक अनुभव को प्राथमिकता दे रहे हैं। "मार्क्स एंड स्पेन्सर" कंपनी के प्रवक्ता के अनुसार उन्हें 30 जगहों के लिए 3 हजार छात्रों की एप्लिकेशंस मिली हैं।

अनोखी ब्रा जो बन जाती है आपातकालीन सुरक्षा मास्क

                                        यह ब्रा किसी दुर्घटना या आपातकालीन स्थिति में बहुत काम आ सकती है क्योंकि ऐसी सूरत में इसे फेसमास्क की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. सामान्य परिस्थितियों में इसे आम ब्रा की तरह इस्तेमाल में लिया जा सकता है परंतु जरूरत पड़ने पर यह दो फेस मास्क में बदली जा सकती है.
एलेना बोडनर के द्वारा डिजाइन की गई इस ब्रा को आईनोबल अवार्ड फोर इनवेशन का पुरस्कार मिला था. यह पुरस्कार उन खोजों को दिया जाता है जो सुनने में विचित्र लगे परंतु उनके कई लाभ हों.
बोडनर की डिजाइन की गई इस ब्रा ने पिछले वर्ष आईनोबल पुरस्कार जीतने के बाद काफी सुर्खियाँ बटोरी थी. परंतु तब वह परीक्षण के लिए ही बनाए गई थी. अब यह ब्रा बाजार में भी उपलब्ध हो गई है. इसे 29.95 डॉलर चुकाकर खरीदा जा सकता है. इस ब्रा को बनाने का उद्देश्य आपातकालीन स्थिति में तुरंत फेसमास्क उपलब्ध करवाना है. इस ब्रा की डिजाइन इस तरह से की गई है कि किसी भी अवांछित स्थिति में इसे दो भागों में बाँटा सकता है और इससे यह दो फेसमास्क में बदल जाती है. इसकी विशेष डिजाइन की वजह से यह मूहँ और नाक के ऊपर अच्छी तरह से चिपक जाती है.
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अब पुरूषों के लिए भी इसी तरह की कोई अनोखी डिजाइन वाला परिधान या अधोवस्त्र तैयार किया जा रहा है.

कुत्ता पालना स्टेटस सिम्बल

कुत्ते सिर्फ दो जात के होते हैं। फालतू या पालतू। फालतू मकान के गेट के बाहर और पालतू चहारदीवारी के अन्दर पाये जाते हैं।
यही इनका स्पष्ट सामाजिक वर्गीकरण है। अपनी जिन्दगी में कुल जमा इन्हीं दो किस्म के कुत्तों से पाला पड़ता आया है। इनकी एक और पहचान भी काबिलेगौर है। फालतू कुत्ते छुट्टा मिलते हैं, पालतू के गले में पट्टा मिलता है। मैं अपनी कुत्ता-संगति और तमाम निजी अनुभवों की बदौलत मुंह ऊपर उठाकर ऐलानिया तौर पर कह सकता हूं कि छुट्टा से ज्यादा खतरनाक पट्टे वाले हुआ करते हैं।
यूं तो अपनी गली में हरेक को शेर होने की सेण्ट-परसेण्ट छूट है और वह होता भी है। एक से एक खौरहा और मरियल कुत्ता भी दूसरों को अपने क्षेत्र में घुसते देखता है, तो आतंकवादी गतिविधियां चालू कर देता है। मगर आप उसको गली से उठाकर मकान के अन्दर ले आइए। सम्मानपूर्वक एक-आध कप दूध चटाइए-चुटाइए, उसमें हाथी की ताकत आ जाएगी। वह इतनी तेजी से भौंकेगा कि अड़ोसियों-पड़ोसियों के कान खड़े हो जाएंगे। कॉलोनी-मोहल्ले में आपकी इज्जत में कुछ इजाफा तो तत्काल हो लेगा।
आम आदमी का पुलिस के कुत्तों पर भरोसा नहीं रहा। अपना कुत्ता खुद पालो का शौक फोबिया का रूप लेता जा रहा है। इससे भले ही अपराधों में कमी या घरों की सुरक्षा की गारण्टी का कोई सीधा रिश्ता नहीं दिखलायी पड़ता है, फिर भी एक स्टेटस सिम्बल बन गया है कुत्ता-पालन। एक कुत्ता, एक लॉन और एक पाइप, जो कभी उच्च वर्ग की पहचान हुआ करता था, आज निम्न मध्य वर्ग की पसन्द बन चुका है। पड़ोसी से ज्यादा कुत्तों से प्यार है।    
इन दिनों मेरे शहर के हर तीसरे-चौथे घर में एक-न-एक कुत्ता जरूर मिलेगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि आज घर-घर में कुत्ते पल रहे हैं। पालतू कुत्तों का चलन बढ़ा है। इससे सड़क के कुत्तों में एक किस्म की असुरक्षा की भावना पैदा हुई है। अब वे चौराहों पर झुण्ड में खड़े होने लगे हैं। संगठित हो रहे हैं। मगर पालतू कुत्ते इकलौते रहकर भी उन पर बीस पड़ रहे हैं। जिसे फोकट की सुविधाएं प्राप्त हो जाएं, अपने लोगों पर ही भारी पड़ने लग जाता है।
पालतू कुत्तों के बीते दिनों की याद आप सभी को होगी। बेचारे छोटी-सी लोहे की जंजीर या पुरानी खटिया की टूटी हुई रस्सी में बंधे हुए मरियल-से कुंकुआया करते थे। फुरसत में, मालिक की नेमप्लेट के साथ स्वयं से सावधान होने की अंग्रेजी में दर्ज तख्ती बांचकर गौरवान्वित होने के सिवा उनकी जिन्दगी में एक कुंआरा एहसास छटपटाता रहता था। वक्त बदला है। पालतू कुत्तों ने गेट से शुरुआत कर बरास्ता ड्राइंगरूम अपनी जगहें बेडरूमों में सुरक्षित कर ली हैं।

प्रियवर झबरीले पामेरियन जी और पुंछकट्टे डोवरमैन जी तो साहब और साहबाइन के साथ ही आराम फरमाते हैं। क्या किस्मत पायी है, ग्रेट डेन साब ने, डौलमेशन महोदय ने, बुलडॉग जी ने। इनके सेपरेट एसी बेडरूम्स-बाथरूम्स हैं। खाने और जीभ लपलपाने की मुफ्त सुविधाएं हैं। नोचने को हड्डियां हैं। ताकने को मेहमान हैं। मॉर्निंग और इवनिंग वॉक के लिए सर्वेण्ट्स हैं। जहां पर नहीं हैं, मालिक स्वयं नौकर की भूमिका में हैं।

जब मैं जंजीर का दूसरा सिरा थामे हुए इस प्रजाति के विवश कुत्ता स्वामियों को जर्मन शेफर्डों और देसी डोबरमैनों के पीछे सड़कों और गलियों में लगभग-लगभग घिसटते हुए देखता हूं तो सोचता हूं, इन्हें रोककर एक बात पूछ ही लूं-हुजूर, नौकर रखने की कूबत नहीं, कुत्ते पालने का शौक पाल रहे हैं। अगर इतने ही पशु-प्रेमी हैं तो और भी जानवर छुट्टा घूम रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं पालते-पोसते? क्यों बेवजह चौदह इंजेक्शन ठुंकवाना चाहते हैं!
खैर, पालतू कुत्तों ने काटना, भौंकना, गुर्राना, दुम हिलाना, झगड़ना, स्वामिभक्ति वगैरह फालतू हरकतें अपने मालिकों की तरफ फेंक दी हैं। खुद ठाठपूर्वक लॉन, बंगलों, कमरों, कोठियों, मकानों में उछलकूद कर रहे हैं। नयी मॉडल की कारों में घूम-टहल रहे हैं। टीवी का नग्न सत्य निहार रहे हैं। ये बच्चों के प्रिय 'स्कूबी डू' हैं। साहब के शेरू, टॉमी, ब्लैकी हैं। मेम साहब के विल्सन, डोवर, चीनू हैं। कुल मिलाकर ये पालतू हैं। इन्हें गोश्त पसन्द है, गले में हड्डी लटकाना नहीं।  कुछ भी हो, इनका पिल्लत्व, इनकी सारमेयता और श्वानियत इनके पालकों को अपनेपन का एहसास तो देते ही हैं।