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बुधवार, 29 सितंबर 2010

कुत्ता पालना स्टेटस सिम्बल

कुत्ते सिर्फ दो जात के होते हैं। फालतू या पालतू। फालतू मकान के गेट के बाहर और पालतू चहारदीवारी के अन्दर पाये जाते हैं।
यही इनका स्पष्ट सामाजिक वर्गीकरण है। अपनी जिन्दगी में कुल जमा इन्हीं दो किस्म के कुत्तों से पाला पड़ता आया है। इनकी एक और पहचान भी काबिलेगौर है। फालतू कुत्ते छुट्टा मिलते हैं, पालतू के गले में पट्टा मिलता है। मैं अपनी कुत्ता-संगति और तमाम निजी अनुभवों की बदौलत मुंह ऊपर उठाकर ऐलानिया तौर पर कह सकता हूं कि छुट्टा से ज्यादा खतरनाक पट्टे वाले हुआ करते हैं।
यूं तो अपनी गली में हरेक को शेर होने की सेण्ट-परसेण्ट छूट है और वह होता भी है। एक से एक खौरहा और मरियल कुत्ता भी दूसरों को अपने क्षेत्र में घुसते देखता है, तो आतंकवादी गतिविधियां चालू कर देता है। मगर आप उसको गली से उठाकर मकान के अन्दर ले आइए। सम्मानपूर्वक एक-आध कप दूध चटाइए-चुटाइए, उसमें हाथी की ताकत आ जाएगी। वह इतनी तेजी से भौंकेगा कि अड़ोसियों-पड़ोसियों के कान खड़े हो जाएंगे। कॉलोनी-मोहल्ले में आपकी इज्जत में कुछ इजाफा तो तत्काल हो लेगा।
आम आदमी का पुलिस के कुत्तों पर भरोसा नहीं रहा। अपना कुत्ता खुद पालो का शौक फोबिया का रूप लेता जा रहा है। इससे भले ही अपराधों में कमी या घरों की सुरक्षा की गारण्टी का कोई सीधा रिश्ता नहीं दिखलायी पड़ता है, फिर भी एक स्टेटस सिम्बल बन गया है कुत्ता-पालन। एक कुत्ता, एक लॉन और एक पाइप, जो कभी उच्च वर्ग की पहचान हुआ करता था, आज निम्न मध्य वर्ग की पसन्द बन चुका है। पड़ोसी से ज्यादा कुत्तों से प्यार है।    
इन दिनों मेरे शहर के हर तीसरे-चौथे घर में एक-न-एक कुत्ता जरूर मिलेगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि आज घर-घर में कुत्ते पल रहे हैं। पालतू कुत्तों का चलन बढ़ा है। इससे सड़क के कुत्तों में एक किस्म की असुरक्षा की भावना पैदा हुई है। अब वे चौराहों पर झुण्ड में खड़े होने लगे हैं। संगठित हो रहे हैं। मगर पालतू कुत्ते इकलौते रहकर भी उन पर बीस पड़ रहे हैं। जिसे फोकट की सुविधाएं प्राप्त हो जाएं, अपने लोगों पर ही भारी पड़ने लग जाता है।
पालतू कुत्तों के बीते दिनों की याद आप सभी को होगी। बेचारे छोटी-सी लोहे की जंजीर या पुरानी खटिया की टूटी हुई रस्सी में बंधे हुए मरियल-से कुंकुआया करते थे। फुरसत में, मालिक की नेमप्लेट के साथ स्वयं से सावधान होने की अंग्रेजी में दर्ज तख्ती बांचकर गौरवान्वित होने के सिवा उनकी जिन्दगी में एक कुंआरा एहसास छटपटाता रहता था। वक्त बदला है। पालतू कुत्तों ने गेट से शुरुआत कर बरास्ता ड्राइंगरूम अपनी जगहें बेडरूमों में सुरक्षित कर ली हैं।

प्रियवर झबरीले पामेरियन जी और पुंछकट्टे डोवरमैन जी तो साहब और साहबाइन के साथ ही आराम फरमाते हैं। क्या किस्मत पायी है, ग्रेट डेन साब ने, डौलमेशन महोदय ने, बुलडॉग जी ने। इनके सेपरेट एसी बेडरूम्स-बाथरूम्स हैं। खाने और जीभ लपलपाने की मुफ्त सुविधाएं हैं। नोचने को हड्डियां हैं। ताकने को मेहमान हैं। मॉर्निंग और इवनिंग वॉक के लिए सर्वेण्ट्स हैं। जहां पर नहीं हैं, मालिक स्वयं नौकर की भूमिका में हैं।

जब मैं जंजीर का दूसरा सिरा थामे हुए इस प्रजाति के विवश कुत्ता स्वामियों को जर्मन शेफर्डों और देसी डोबरमैनों के पीछे सड़कों और गलियों में लगभग-लगभग घिसटते हुए देखता हूं तो सोचता हूं, इन्हें रोककर एक बात पूछ ही लूं-हुजूर, नौकर रखने की कूबत नहीं, कुत्ते पालने का शौक पाल रहे हैं। अगर इतने ही पशु-प्रेमी हैं तो और भी जानवर छुट्टा घूम रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं पालते-पोसते? क्यों बेवजह चौदह इंजेक्शन ठुंकवाना चाहते हैं!
खैर, पालतू कुत्तों ने काटना, भौंकना, गुर्राना, दुम हिलाना, झगड़ना, स्वामिभक्ति वगैरह फालतू हरकतें अपने मालिकों की तरफ फेंक दी हैं। खुद ठाठपूर्वक लॉन, बंगलों, कमरों, कोठियों, मकानों में उछलकूद कर रहे हैं। नयी मॉडल की कारों में घूम-टहल रहे हैं। टीवी का नग्न सत्य निहार रहे हैं। ये बच्चों के प्रिय 'स्कूबी डू' हैं। साहब के शेरू, टॉमी, ब्लैकी हैं। मेम साहब के विल्सन, डोवर, चीनू हैं। कुल मिलाकर ये पालतू हैं। इन्हें गोश्त पसन्द है, गले में हड्डी लटकाना नहीं।  कुछ भी हो, इनका पिल्लत्व, इनकी सारमेयता और श्वानियत इनके पालकों को अपनेपन का एहसास तो देते ही हैं।

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