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शनिवार, 17 सितंबर 2011

यही तो है ''माँ''

माँ मन्दिर नहीं होती
न ही भगवान
नहीं जाना पड़ता उस तक जूते उतारकर
माँ हमारा अपना कमरा है
जो राह देखता है
... ... साल भर / रात भर
हम चाहें लौटें या नहीं
और लौटकर
जूते पहने हुए ही पसर जाते हैं हम उसकी गोद में
और ज़माने भर का कीचड़
सुना देते हैं उस कमरे को
सने हुए कमरे
सुनती हुई माँएं
गुस्सा करते हैं कुछ देर
मगर कभी नाराज़ नहीं होते
नहीं फेर लेते चेहरा प्रेमिकाओं की तरह
नहीं कहते कि “तुम गन्दे हो, लौट जाओ”;

यही तो है ''माँ''

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